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मिलिए लद्दाख की पहली महिला स्त्री रोग विशेषज्ञ और पद्म पुरस्कार विजेता डॉ. त्सेरिंग लैंडोल से

सन् 1945 में लेह के एक किसान परिवार के घर में जन्मी डॉ त्सेरिंग लैंडोल अपने परिवार के उन पहले कुछ सदस्यों में से एक थीं जिन्हें स्कूल जाने और औपचारिक शिक्षा (formal education) हासिल करने का मौका मिला

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नई दिल्ली: जब त्सेरिंग छोटी थी तो उन्होंने देखा कि कैसे बच्चे के जन्म के दौरान उनकी मां को परिवार के बाकी लोगों से अलग-थलग कर दिया गया और उन्हें खाना खिलाने के लिए भी अलग बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता था. इस घटना ने नन्हीं त्सेरिंग लैंडोल को इतनी बुरी तरह प्रभावित कि वो इस वाक्ये को कभी भुला नहीं पाईं. ये बात इतनी गहराई तक उनके मन में बैठ गई थी कि युवा होती त्सेरिंग ने मन में ठान लिया कि ऐसी परंपराओं और अंधविश्वासों से अपने समाज को आजाद करने के लिए उनकी मानसिकता को बदलेंगी. यह कहानी 79 साल की महिला डॉ. त्सेरिंग लैंडोल के साहस और उनके दृढ़ निश्चय की है, जो पिछले चार दशकों से ज्यादा समय से वहां की महिलाओं को सही स्वास्थ्य देखभाल का महत्व समझाकर सशक्त बना रही है और उन्हें ऐसे अंधविश्वासों और खराब स्वास्थ्य से मुक्ति दिला रही है.

1945 में लेह के एक किसान परिवार के घर में जन्मी डॉ. त्सेरिंग लैंडोल अपने परिवार के उन पहले कुछ सदस्यों में से एक थीं जिन्हें स्कूल जाने और औपचारिक शिक्षा हासिल करने का मौका मिला. लेकिन डॉ लैंडोल बस यहीं नहीं रुकीं. आगे भी अपनी पढ़ाई जारी रख वह लद्दाख रीजन की पहली महिला स्त्री रोग विशेषज्ञ (female gynaecologist) बनीं.

एनडीटीवी-डेटॉल बनेगा स्वस्थ इंडिया के साथ एक इंटरव्यू के दौरान डॉ लैंडोल ने अपनी कुछ पुरानी यादों के बारे में बताते हुए कहा,

मेरे दादाजी के सौतेले भाई मुझसे कहा करते थे कि तुम डॉक्टर नहीं बन सकती और प्रिग्नेंसी नहीं करा सकती. ऐसा करके तुम हमारे देवता को नाराज कर दोगी. दरअसल उस जमाने में बच्चे के जन्म को लेकर बहुत सारे अंधविश्वास फैले थे. यहां तक कि परिवार के सदस्यों को भी मां की सेवा करने से रोक दिया जाता था क्योंकि उन्हें ऐसा लगता था कि ऐसे करने से देवता नाराज हो जाएंगे. इस वजह से गर्भावस्था संबंधी बहुत सारी बीमारियां हो जाती थी. लेकिन मेरे पिता काफी दूरदर्शी थे उन्होंने मेरे प्रयासों का समर्थन किया. मेरे पिताजी और दादाजी ने मुझे डॉक्टर बनाने की ठान ली थी और उन्होंने मुझे इसके लिए आगे की पढ़ाई करने की इजाजत दे दी.

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डॉ त्सेरिंग लैंडोल आगे की पढ़ाई के लिए श्रीनगर चली गईं जहां उन्होंने सरकारी मेडिकल कॉलेज में प्रसूति और स्त्री रोग में विशेषज्ञता हासिल की. कुछ सालों तक श्रीनगर में काम करने का अनुभव हासिल करने के बाद डॉ लैंडोल 1979 में लेह के सोनम नोरबू मेमोरियल अस्पताल में क्षेत्र की पहली स्त्री रोग विशेषज्ञ के तौर पर काम करने लगीं. इस दौरान उन्हें शून्य से नीचे तापमान गिरने पर भी गंभीर परिस्थितियों में काम करना पड़ा. डॉ लैंडोल ने कहा,

आज लोगों के लिए यह समझना मुश्किल है कि उन दिनों सर्जरी करते वक्त डॉक्टरों को किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता था. मैंने लोगों के घरों में जाकर डिलीवरी कराई है क्योंकि उन दिनों अस्पतालों में हीटिंग सिस्टम मौजूद नहीं थे. मैं घरों में डिलीवरी कराने के लिए अस्पताल से वैक्यूम, दस्ताने और दूसरी जरूरी दवाएं घर ले जाती थी. हमें एक ड्रम में पानी जमा करना पड़ता था क्योंकि वहां रनिंग वॉटर की सुविधा नहीं होती थी. तापमान बहुत कम होने से पानी जम जाता था इसलिए हम पहले बर्फ तोड़ते थे. पानी को गर्म करने के लिए केरोसिन हीटर का इस्तेमाल किया जाता था. इसके अलावा ऑपरेशन थिएटर में गर्मी पैदा करने के लिए कोयला जलाया जाता था. लोग इतने गरीब थे कि वो नवजात शिशुओं के लिए कपड़े तक नहीं खरीद सकते थे और इसलिए डॉक्टरों को नवजात शिशुओं के लिए कपड़े लाने पड़ते थे ताकि उन्हें हाइपोथर्मिया (hypothermia) होने से बचाया जा सके.

डिलीवरी कराना चुनौती का केवल एक हिस्सा था. लेकिन पहले डॉ. लैंडोल को महिलाओं को संस्थागत प्रसव यानी इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी और मां के स्वास्थ्य से जुड़ी जरूरी बातों के बारे में शिक्षित करना था. महिलाएं अपनी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में खुलकर बात नहीं करती थीं, उन्हें महिलाओं की इस सोच को बदलना था. महिलाओं में खासकर गर्भवती महिलाओं में इस बात को लेकर जागरूकता नहीं थी कि हाइजीन यानी स्वच्छता और न्यूट्रिशन (पोषण) उनके लिए कितनी अहमियत रखता है.

लोगों को एकजुट करने के लिए और उनमें जागरूकता पैदा करने के लिए लगातार कोशिश के साथ-साथ दूर-दराज के इलाकों का नियमित तौर पर दौरा और एक के बाद एक मेडिकल कैंप लगाने की जरूरत पड़ी. डॉ लैंडोल का सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, कम्युनिकेशन स्किल पर उनकी खास पकड़ और लोगों का विश्वास हासिल करने और उनकी भाषा, स्थितियों और आदतों को समझने की उनकी क्षमता ने भी लद्दाख में महिलाओं को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने में उनकी काफी मदद की.

डॉ लैंडोल ने रूढ़िवादी बौद्ध आबादी के बीच परिवार नियोजन और इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी (institutional deliveries) को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. डॉ लैंडोल ने कहा,

मुझे लोगों को यह समझाने में और उन्हें यह स्वीकार करवाने में काफी समय लगा कि उन्हें दो बच्चों के जन्म के बीच कम से कम दो साल का अंतर जरूर रखना चाहिए. मैंने उन्हें इस बात का यकीन दिलाया कि परिवार नियोजन से उनके स्वास्थ्य में सुधार होगा. उन्हें समझाया कि अगर बच्चे कम होंगे तो वो उनकी बेहतर देखभाल कर पाएंगे हैं और उन्हें शिक्षित कर पाएंगे.

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उनका मानना है कि लद्दाख में आबादी कम है और इसने डॉ लैंडोल की मुश्किलें थोड़ी आसान कर दी. उनके मरीजों ने भी जानकारी और स्वास्थ्य-संबंधी व्यवहार के प्रचार-प्रसार में उनका जमकर सहयोग किया. डॉ लैंडोल का मानना है कि “शिक्षा” अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी है. उन्होंने गर्भवती महिलाओं को संतुलित आहार खाने के बारे में शिक्षित किया. उन्होंने समझाते हुए कहा कि,

हम गर्भवती महिलाओं को समझाते हैं कि उन्हें प्रेग्नेंसी के दौरान दो लोगों के लिए खाना होता है- खुद के लिए और उनके बच्चे के लिए. इसलिए उन्हें बार-बार और थोड़ी-थोड़ी मात्रा में भोजन करना चाहिए. प्रेगनेंसी के दौरान एक संतुलित आहार की जरूरत होती है जिसका मतलब है कि आपकी थाली में प्रोटीन, विटामिन, कैल्शियम और दूसरे पोषक तत्व शामिल होने चाहिए जिससे किसी भी तरह की डेफिशियेंसी को दूर किया जा सके.

सबसे खास बात यह है कि डॉ लैंडोल ने कभी भी अपने मरीजों से कोई फीस नहीं ली क्योंकि वह उनकी सिर्फ मदद करना चाहती हैं. वह उनकी मजबूरी का फायदा उठाना नहीं चाहती थीं. उन्होंने कहा,

जैसा कि कहा जाता है कि हमारे पास अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए काफी होता है लेकिन अपना लालच पूरा करने के लिए नहीं. क्योंकि लालच का कोई अंत ही नहीं है. मेरे पास अपना पेट भरने के लिए पर्याप्त पैसा था इसलिए मुझे कभी अपने मरीजों से फीस लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई. मेरे लिए मेरी सैलरी ही काफी थी.

लद्दाख के लोगों के प्रति उनकी निस्वार्थ सेवा के लिए डॉ त्सेरिंग लैंडोल को 2006 में पद्म श्री और 2020 में पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका है. लेकिन क्या इन पुरस्कारों से उनके जीवन या काम पर कोई फर्क पड़ा है? इस पर डॉ लैंडोल ने कहा,

यहां के लोगों को पद्म पुरस्कारों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. हालांकि मैं इन पुरस्कारों की सराहना करती हूं, लेकिन शुरू से ही मैं यहां के लोगों की सोच में बदलाव लाना चाहती थी. महिलाओं को अस्पताल आने के लिए मोटिवेट करने में मुझे करीब पांच साल लग गए.

लद्दाख में महिलाएं अब सशक्त हैं. डॉ लैंडोल का कहना है कि अब यहां की स्थिति बदल गई है. स्वास्थ्य देखभाल को लेकर अब यहां कि महिलाएं कुछ छिपाती नहीं हैं, अपनी समस्याएं खुलकर बताती हैं. सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने, प्रसव के दौरान माने जाने वाले अंधविश्वासों को दूर करने और महिलाओं के उत्थान के लिए वो कई दशकों से जो लगातार कड़ी मेहनत कर रहीं है और यह उसका ही फल है.

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