कोई पीछे नहीं रहेगा

प्राइड मन्थ 2023 से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

प्राइड मन्थ 2023 की थीम है – रोष और डटकर सामना

Published

on

प्राइड मन्थ से जुड़ी कुछ अहम बातें

नई दिल्ली: एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय की आवाज को मजबूत करने, उनकी संस्कृति को उत्सव के रूप में मनाने ओर उनके अधिकारों के लिए समर्थन करने का महीना होता है जून. इसी महीने में इस समुदाय के प्रतीक झंडे के इंद्रधनुषी रंग पूरी चमक-दमक के साथ उभर कर सामने आते हैं और अपने एक सशक्त अस्तित्व के लिए बिना किसी भेदभाव और बगैर शर्त या बाध्यता के अपनी पहचान के लिए उनकी मांग उठती है. इस दौरान रंग-बिरंगे या भड़कीले कपड़ों या फिर कई तरह के मेकअप के साथ दिखने वाले इस समुदाय के मुद्दे वास्तव में काफी गंभीर हैं, जो अपनी लैंगिक पहचान और समाज में स्वीकार्यता से जुड़े हैं. यह प्राइड मन्थ यानी गौरव माह इसी सबसे जुड़ी कई बातों के बारे में होता है.

गे सेंटर ऑर्गेनाइजेशन की मानें तो LGBTQIA+ समुदाय लोगों को सशक्त करने और एक मजबूत समुदाय बनाने की पुरजोर कोशिश कर रहा है. LGBTQIA+ का मतलब वास्तव में इसके अक्षरों के फुल फॉर्म से स्पष्ट होता है, जिसका आशय लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स, असेक्सुअल और अन्य से है. बताया गया है कि किसी व्यक्ति की लैंगिक व्यवहार के बारे में उसके लिंग की पहचान करने के लिहाज से इस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है.

इस प्राइड मन्थ को किस तरह समझा जाए, इस बारे में तमाम बातें यहां हैं :

कैसे शुरू हुआ प्राइड मन्थ का चलन

यह सिलसिला अमेरिका में वर्ष 1969 में शुरू हुआ था. न्यूयॉर्क शहर में काफी शोहरत पा चुके एक गे बार स्टोनवेल इन पर पुलिस ने सुबह सुबह ही छापामार कार्रवाई की थी और यहां के कर्मचारियों को लाइसेंस के बगैर ही शराब बेचने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था. यह एक तरह से पुलिस की रूटीन कार्रवाई थी कि वह गे बारों पर छापे मारा करती थी, लेकिन इस घटना में ऐसा पहली बार हुआ कि बार के LGBTQIA+ समुदाय के लोगों ने पुलिस के एक्शन के खिलाफ जंग छेड़ दी. नतीजा यह हुआ कि स्टोनवेल दंगे शुरू हो गए, जो कि अगले कई दिनों तक चलते रहे. फिर इससे उस संघर्ष को भी बल मिला, जिसमें अपने अधिकारों की गारंटी के लिए गे, लेस्बियन, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर समुदाय अमेरिका की मुख्यधारा में एक साथ आ गए. यह भी पहली बार ही हुआ कि LGBTQIA+ समुदाय से जुड़े किसी दंगे को पहली बार मीडिया में बड़े पैमाने पर कवरेज मिला और समलैंगिकों के अधिकारों से जुड़े कई तरह के समूह बनने लगे. विरोध और अपनी खोई हुई गरिमा की लड़ाई के लंबे इतिहास के बाद, 1999 में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने आधिकारिक तौर पर जून के महीने का ‘गे और लेस्बियन प्राइड मन्थ’ के रूप में मान्यता दे दी. इसके बाद 2011 में, तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी इस गौरव आंदोलन को अपने स्वरूप में समावेशी मानते हुए इस दिवस का शीर्षक रूपांतरित किया और इसे ‘लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर प्राइड मन्थ’ कहा.

प्राइड मन्थ के लिए आखिर जून का महीना ही क्यों?

समलैंगिक मुक्ति आंदोलन जिस समय में भड़का था, वह संयोग से जून का ही महीना था. जून में ही स्टोनवेल दंगों की शुरूआत हुई थी. 2015 में स्टोनवेल इन को न्यूयॉर्क शहर की तरफ से एक ऐतिहासिक स्थान का दर्जा दिया गया और बाद में 2016 में, पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसे राष्ट्रीय स्मारक का मान भी दिया.

पहली बार हुई प्राइड परेड की इस साल 53वीं सालगिरह है. दंगा या आंदोलन भड़कने के एक साल बाद यह प्राइड परेड 1970 में पहली बार हुई थी.

इसे भी पढ़ें: प्राइड मंथ स्पेशल: भारत LGBTQIA+ समुदाय के लिए समान स्वास्थ्य देखभाल की चुनौती से कैसे निपट सकता है?

कैसे मनाया जाता है प्राइड मन्थ?

जून का महीना परंपरागत रूप से, देश भर में इस तरह की परेडों या विरोध प्रदर्शनों के साथ जुड़ा रहता है. अब, चूंकि इस महीने को काफी बल और समर्थन मिल चुका है इसलिए इस महीने में कई तरह के कलात्मक प्रदर्शन भी होते दिखते हैं, जैसे लाइव नाटक आदि के माध्यम से इस समुदाय के लोगों के जीवन और संस्कृति को एक तरह से उत्सव के रूप में मनाने का चलन भी हो गया है. यह महीना उन लोगों की यादों के साथ भी जुड़ा है जिन्होंन एचआईवी या एड्स के कारण अपनी जान गंवाई है. इसके साथ ही, LGBTQIA+ समुदाय के अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाने के कार्यक्रम भी इस महीने में होते हैं.

इंद्रधनुषी रंग का झंडा – गौरव प्रतीक के बारे में

यह इंद्रधनुषी रंग का झंडा 1978 में एक कलाकार गिलबर्ट बेकर ने डिजाइन किया था. उस समय की बात करें तो सैन फ्रांसिस्को गे फ्रीडम डे परेड के उत्सव के दौरान इस डिजाइन के झंडे का इस्तेमाल किया जाता था. मानवाधिकार अभियान के मुताबिक, बेकर ने इस डिजाइन को खास तौर से उम्मीद के प्रतीक के रूप में चुना था. इसके बाद LGBTQIA+ गौरव के लंबे इतिहास में यह झंडा व्यापक रूप से इस्तेमाल में लाया जाता रहा है. इस झंडे का हर रंग इस समुदाय के विभिन्न हिस्सों या अंगों को प्रतीक के रूप में दर्शाता है : गाढ़ा गुलाबी रंग लिंग, लाल रंग जीवन, नारंगी रंग आरोग्य, पीला रंग सूरज की रोशनी, हरा रंग प्रकृति, टरकॉइज रंग चमत्कार और कला, गाढ़ा नीला रंग शांति और वायलेट रंग LGBTQ+ समुदाय की मूल भावना का प्रतीक समझा जाता है.

प्राइड मन्थ 2023 की थीम

हर साल इस प्राइड मन्थ के लिए कोई न कोई थीम तय की जाती है. LGBTQIA+ समुदाय के लोग अब भी जिन स्थितियों का सामना करते हैं, उन प्रमुख मुद्दों के बारे में जागरूकता लाई जा सके और लोगों को इनके संबंध में चर्चा या विमर्श करने में मदद हो, इसके लिए यह थीम महत्वपूर्ण होती है. इस साल, इस महीने के लिए थीम रखी गई है – रोष और डटकर सामना. यह एलजीबीटी विरोधी बिलों और कानूनों के पुनरुत्थान के साथ वर्तमान वैश्विक माहौल को दर्शाता है।

इसे भी पढ़ें: क्वीर समुदाय से आने वाली 18 साल की ओजस्वी और उसके मां के संघर्ष की कहानी

भारत में LGBTQ+ समुदाय की क्या स्थिति है?

मानवाधिकार आयोग की मानें तो एक अनुमान के अनुसार 10.4 करोड़ भारतीय (या कुल आबादी के लगभग 8%) हैं, जो LGBTQIA+ समुदाय के सदस्यों के रूप में शुमार हैं. इसमें यह भी कहा गया है कि भारत के सामने इस समय जो सबसे बड़ी समस्याएं हैं, उनमें से एक LGBTQIA+ समुदाय के बारे में जागरूकता बेहद कम होना भी है. मानवाधिकार आयोग ने साल 2022 में ​एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक है — Making India Transgender Inclusive: An In-Depth Analysis Of The Education Sector In India. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 68 प्रतिशत भारतीय मानते हैं कि परालैंगिक या ट्रांसजेंडरों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन वास्तविकता में केवल 20 प्रतिशत ऐसी आबादी ही अपने जीवन में ट्रांसजेंडर की इस पहचान के साथ मुखर होकर सामने आ पाती है.

केरल डेवलपमेंट सोसायटी ने 2017 में एक अध्ययन सिर्फ दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमाओं के भीतर किया तो उसमें कहा गया कि क्रमश: 29.11 प्रतिशत और 33.11 प्रतिशत ट्रांसजेंडर लोग ऐसे रहे, जो कभी स्कूल जा ही नहीं सके. इस अध्ययन में यह भी बताया गया कि दिलली में केवल 5.33 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में केवल 4 प्रतिशत ट्रांसजेंडर ही ऐसे हैं, जिन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की यानी जिनके पास ग्रेजुएशन की डिग्री है.

भारत की ट्रांसजेंडर आबादी के अधिकारों को लेकर बात करें तो, इस समुदाय के अधिकारों के संबंध में पहली बार राष्ट्रीय वैधानिक सेवा अधिकरण यानी NALSA ने अपने एक फैसले में गौर किया. इस जजमेंट में इस बात को प्रमुख तौर से सामने लाया गया कि देश के भीतर इस समुदाय की खासी मौजूदगी है और ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के अधिकारों और हितों की रक्षा करना भारतीय संविधान के सिद्धांतों के दायरे में ही आता है.

इसके बाद वर्ष 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया और अपने ही 2013 के फैसले को पलटते हुए धारा 377 को आंशिक रूप से खत्म कर दिया. यह धारा 377 असल में, ब्रिटिश काल का एक कानून था जो सहमति के साथ समलैंगिक यौन संबंधों को प्रतिबंधित करता था.

इसके बावजूद, आज तक भी हाल यह है कि समलैंगिक विवाह, गोद लेना और जीवनसाथी के वित्तीय संसाधनों को लेकर कानूनी अधिकारों के मुद्दों की बात हो तो इस समुदाय के लिए अब तक बातें स्पष्ट नहीं हैं. सच्चाई तो यह भी है कि अस्पताल में इलाज के लिए भरवाए जाने वाले सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करने और हेल्थ इंश्योरेंस के दावे जैसे कानूनी अधिकार तक ट्रांसजेंडरों के पास नहीं हैं.

इसे भी पढ़ें:  एक ‘क्वीर बच्चे’ को स्वीकार करने का एक माता का अनुभव

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Exit mobile version