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पिंक से ब्लैक कलर तक, फेफड़ों पर पड़ रहे एयर पॉल्यूशन के इफेक्‍ट पर एक चेस्ट सर्जन का अनुभव

डॉ. अरविंद कुमार, चेस्ट सर्जन कहते हैं, “लगभग 30 साल पहले, केवल स्‍मोकिंग करने वाल लोगों के फेफड़ों पर काला जमाव हुआ करता था. लेकिन आज, मुझे शायद ही कभी स्‍मोकिंग न करने वालों में भी क्‍लीयर लंग दिखाई देता है”

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नई दिल्ली: गुरुग्राम के मेदांता-द मेडिसिटी में इंस्टीट्यूट ऑफ चेस्ट सर्जरी, चेस्ट ऑन्को-सर्जरी एंड लंग ट्रांसप्लांटेशन के चेयरमैन डॉ. अरविंद कुमार 30 से अधिक सालों से लोगों की चेस्‍ट, अर्थात् फेफड़ों पर काम कर रहे हैं. वह अपनी टीम के साथ एक दिन में लगभग तीन केस को सुलझाते हैं. पिछले तीन दशकों में, उन्होंने लोगों के फेफड़ों के रंग के साथ-साथ आउट पेशेंट विभाग (ओपीडी) में आने वाले लोगों के स्पेक्ट्रम में कुछ बहुत ही मौलिक और भयावह चेंज देखे हैं.

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एनडीटीवी-डेटॉल बनेगा स्वस्थ इंडिया के साथ एक स्‍पेशल इंटरव्‍यू में, डॉ. कुमार ने अपने अनुभव शेयर किए और उस तरह के लंग्‍स की पहले और बाद की तस्वीर को चित्रित किया, जिस तरह के फेफड़ों का इस्तेमाल वे अब करते थे. उन्होंने कहा,

जब हम पैदा होते हैं तो हमारे फेफड़े पिंक कलर के होते हैं. मैंने पिंक कलर पर काला जमाव देखा है. लगभग 30 साल पहले केवल स्‍मोकिंग करने वालों के फेफड़ों पर काला जमाव होता था. जबकि धूम्रपान न करने वालों में कुल मिलाकर पिंक कलर होंगे. इन वर्षों में, धीरे-धीरे, यह इस हद तक बदल गया है कि पिछले 7-10 वर्षों से, मुझे शायद ही कभी धूम्रपान न करने वालों में भी पिंक कलर के फेफड़े दिखाई दिए हों. मेरा हैरान करने वाला पल लगभग 7 साल पहले था जब मैंने किशोरों के फेफड़ों पर भी काला जमाव देखा था.

वायु प्रदूषण का फेफड़ों पर प्रभाव

डॉ अरविंद ने कहा, एक बार फेफड़ों पर जमा हो जाने के बाद, ये काला जमाव परमानेंट होता है; कोई थैरेपी या ट्रीटमेंट से दूर नहीं होता. ये अपनी जगह पर ही रहते हैं और फेफड़ों और विभिन्न अन्य अंगों को आजीवन नुकसान पहुंचाते हैं.

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लोगों के फेफड़ों की स्थिति से सतर्क होकर, 2015 में, डॉ. अरविंद ने लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए लंग केयर फाउंडेशन की स्थापना की, जो हमारे शरीर के अंदर चुपचाप हो रहा था, हमें पता नहीं चल रहा था.

ऑपरेशन रूम के अंदर की स्थिति खतरनाक रही है, लेकिन अब आउट पेशेंट विभाग से समान रूप से भयानक स्थिति सामने आ रही है. फेफड़े के कैंसर के रोगियों की जनसांख्यिकी में बदलाव के बारे में बात करते हुए, डॉ. अरविंद ने कहा,

30 साल पहले, फेफड़े के कैंसर के एक रोगी की प्रोफ़ाइल में ये शामिल थे – अधिकांश धूम्रपान करने वाले, आयु समूह 50 और 60, ज्यादातर पुरुष और उनका लंबे समय तक धूम्रपान करने का इतिहास होता था. इसके विपरीत, अब मैं 50 प्रतिशत से अधिक रोगी तथाकथित स्‍मोकिंग न करने वाले होते हैं, वे अपने 30 या 40 के दशक में हैं, जिसका अर्थ है कि चरम आयु का लगभग डेढ़ दशक पूर्व है. इतना ही नहीं, आज 40 फीसदी मरीज महिलाएं भी हैं, जो स्‍मोकिंग नहीं करने वाले परिवारों से हैं. और, मेरे लिए पिंक लंग देखना दुर्लभ है. मैं इस बदलाव का श्रेय केवल तथाकथित स्‍मोकिंग न करने वालों के वायु प्रदूषण के संपर्क में आने को देता हूं. मैं यह कहने की हिम्मत करता हूं कि एयर पॉल्यूशन का अब फेफड़ों पर उतना ही प्रभाव पड़ रहा है जितना कि स्‍मोकिंग का और इसे साबित करने का वैज्ञानिक आधार है.

डॉ. अरविंद ने आगे कहा कि अगर कोई सिगरेट के धुएं की सामग्री का विश्लेषण करता है, तो इसमें 70 से अधिक कैंसर पैदा करने वाले एजेंट होते हैं. बहुत सारे कैंसर पैदा करने वाले कारक प्रदूषित हवा में भी मौजूद होते हैं. उन्होंने कहा,

प्रदूषित हवा का फेफड़ों और शरीर के बाकी हिस्सों पर वैसा ही असर होता है जैसा स्‍मोकिंग का होता है. इसलिए, कोई हैरानी नहीं कि अधिक से अधिक नॉन स्‍मोकर को अब फेफड़ों का कैंसर हो रहा है और इसका सीधा कारण वायु प्रदूषण के संपर्क में आना है.

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