कोई पीछे नहीं रहेगा
नूरी सलीम: एक ट्रांसजेंडर मां, जिन्होंने लगभग 300 से अधिक एचआईवी पॉजिटिव बच्चों के लिए एक आशियाना बनाया है.
मैंने अपने जीवन का एक मिशन बनाया कि मैं लोगों को इस बीमारी के प्रति जागरूक करूंगी और सुनिश्चित करुँगी कि कोई भी बच्चा जोकि इस बीमारी से पीड़ित है वह हमारे मिशन में जुड़ने से न छूटे.
नई दिल्ली: तमिलनाडु के शहर रामनाथपुरम की एक ट्रांस-महिला नूरी सलीम कहती हैं, “मैं नूर मोहम्मद के रूप में पैदा हुआ था, लेकिन मुझे स्कूल में फातिमा कहा जाता था. मेरा जीवन बहुत परेशानियों और कठिनाइयों से भरा था”. नूरी जब चार साल की थी तब उन्होंने अपनी माँ को खो दिया था.13 साल की उम्र में, वह घर से भाग गई क्योंकि उसके पिता और उसके परिवार ने उसे प्रताड़ित किया और परिवार द्वारा नूरी को स्वीकार नहीं किया गया. सामाजिक दबाव और अपमान के कारण, उसने हिजरा के एक समूह में शामिल होने का फैसला किया. किसी की शादी, बच्चे के जन्म या फिर किसी त्योहार से उसकी रोजी-रोटी चल रही थी. लेकिन चीजें धीरे धीरे और मुश्किल होती जा रही थी क्योंकि यह सब कोई स्थाई समाधान नहीं था.
नूरी अपने गुजारे के लिए एक अच्छी नौकरी करना चाहती थी, लेकिन अपनी पहचान के कारण उसे हर कदम पर बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित कर दिया जाता था. इसके परिणामस्वरूप उसने जीवित रहने के लिए छोटे-मोटे काम किए. आखिर में जब उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा तो वह एक सेक्स वर्कर बन गई. 34 साल की उम्र में, नूरी सलीम को पता चला कि वह एचआईवी पॉजिटिव थी.1987 में, वह भारत में तीसरी व्यक्ति थीं जिनकी बीमारी को आधिकारिक तौर पर दर्ज किया गया था. इन सभी कठिनाइयों के बावजूद, नूरी सलीम 300 से अधिक बच्चों के लिए आशा की किरण बन गई, जो एचआईवी के साथ पैदा हुए थे और उनके परिवारों ने उनका साथ छोड़ दिया था. आज उन्हें प्यार से अम्मा के नाम से जाना जाता है. टीम बनेगा स्वस्थ इंडिया से बात करते हुए उन्होंने अपने अभी तक के सफ़र के बारे में विचार साझा किए.
“मैंने केवल तीसरी कक्षा तक पढ़ाई की है, उसके बाद मेरे लिए पढ़ाई जारी रखना मुश्किल था क्योंकि स्कूल में किसी से भी बात करना मुश्किल हो रहा था. बचपन में ही मैंने अपने दोनों माता-पिता को खो दिया था. मैं 8 साल की थी जब मैंने ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ किसी भी शुभ अवसर पर लोगों के घरों में जाना शुरू कर दिया था, और यूंही मेरा जीवन चल रहा था.
इसे भी पढ़ें: कैसे खबर लहरिया, महिलाओं के नेतृत्व वाला एक डिजिटल न्यूज़रूम, तोड़ रहा है लैंगिक पूर्वाग्रहों को
एचआईवी पॉजिटिव होने और एचआईवी के साथ बच्चों को गोद लेने की अपनी प्रेरणा के बारे में बात करते हुए नूरी सलीम ने कहा,
उन्होंने कहा, ‘यह दिसंबर 1987 की बात है, जब मुझे पता चला कि मैं एचआईवी पॉजिटिव हूँ. मैं एक सेक्स वर्कर के रूप में काम कर रही थी, लेकिन जब मुझे यह पता चला कि मैं इस बीमारी से पीड़ित हूँ, तभी मैंने अपने जीवन का एक मिशन बनाया कि मैं लोगों को इस बीमारी के प्रति जागरूक करूंगी और सुनिश्चित करुँगी कि कोई भी बच्चा जोकि इस बीमारी से पीड़ित है वह हमारे मिशन में जुड़ने से न छूटे. तब से मैं इस बीमारी के साथ जी रही हूँ. 35 साल हो गए हैं और अभी भी मैं जिंदा हूँ और अपनी ही शर्तों पर अपना जीवन जी रही हूँ. समाज में यह एक बहुत बड़ी ग़लतफहमी है कि लोग सोचते हैं कि यदि किसी को एचआईवी या एड्स है तो वह जिन्दा नहीं बचेगा, परन्तु यह सच नहीं है, लोगों को समझना चाहिए कि यह सिर्फ एक संक्रमण है.
अपनी पहल के बारे में बताते हुए नूरी ने कहा कि उन्होंने एसआईपी मेमोरियल का निर्माण अपनी तीन करीबी दोस्तों सेल्वी, इंदिरा और पझानी की याद में किया है, जिन्हें उन्होंने एड्स के कारण खो दिया था. आखिर किससे प्रेरित होकर उन्होंने इस पहल की शुरुआत की, इसके बारे में उन्होंने कहा,
‘मुझे कूड़ेदान में दो दिन का एक बच्चा मिला था. जब मैंने उसे देखा, तो मैं तुरंत उसे अस्पताल ले गई , जहां मुझे बताया गया कि वह बच्ची एचआईवी पॉजिटिव है. मुझे समझ में आ गया था कि उसके माता-पिता ने उसे यह जानते हुए छोड़ दिया होगा कि बच्ची को यह बीमारी है. मैंने उसकी देखभाल करने का फैसला किया. मैंने तीन बार उसका ऑपरेशन करवाया, उसकी जान बचाई, आज वह 17 साल की है और 11वीं कक्षा में पढ़ रही है. जब मैंने पहली बार उसे देखा, तो मुझे अपने जीवन का उद्देश्य मिला और उसी उद्देश्य को एसआईपी को समर्पित करने का फैसला किया – और तय किया कि हमें उन सभी बच्चों के जीवन को बचाना जिन्हें एचआईवी के कारण उनके माता-पिता ने छोड़ दिया है.
इसे भी पढ़ें: किस तरह ग्रामीण भारतीय इलाकों में महिलाएं लिंग भेद को खत्म कर नए और स्थायी कल के लिए काम कर रही हैं…
नूरी ने कहा कि उसे भी उसके परिवार के द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था और इसीलिए मैंने परित्यक्त बच्चे जोकि इस बीमारी से जूझ रहे हैं उनको अपनाने का फैसला कर लिया. आज, एसआईपी स्मारक में लगभग 300 से अधिक बच्चे हैं और एसआईपी की वजह से इनके जीवन में बदलाव भी आया है. वाकई में नूरी के इन प्रयासों के लिए धन्यवाद. वह कहती हैं,
‘300 बच्चों में से 58 लड़कियों की शादी हो चुकी है, उनके अपने बच्चे हैं और वे सब बेहद खुशहाल जीवन जी रही हैं. आज, मैं एक दादी हूं और कई बच्चों के लिए एक बहुत प्यारी दादी मां भी हूं. यह देखकर बहुत अच्छा लगता है कि आज मेरी वजह से कई बच्चे जिंदा हैं, सभी बच्चे स्वस्थ और खुशहाल जीवन जी रहे हैं. अब मैं अपने लिए नहीं बल्कि इन सभी बच्चों के लिए जी रही हूं.
अपने एनजीओ में पैसों का प्रबंध और कैसे मुफ़्त में बच्चों को सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं, इसके बारे में नूरी कहती हैं,
“मैंने अपने पिछले कामों से कुछ अच्छा शुरू करने के लिए पर्याप्त बचत की थी. जब मैंने एसआईपी मेमोरियल शुरू किया, तो मेरे पास 40,000 रुपये थे. लोगों के दान की मदद से मैंने एनजीओ को चालू रखा. हाल ही में मिलाप संगठन जोकि लोगों को उनके सपनों को पूरा करने में मदद करता है, उन्होंने मुझे 2.5 करोड़ रुपये जुटाने में मदद की. इन पैसों की मदद से मैं जल्द ही अपने बच्चों के लिए पूरी तरह से समर्पित एक इमारत बनवाऊंगी और साथ ही मैं उन्हें अच्छा भोजन, शिक्षा और रहने के लिए एक सुरक्षित जगह देने का भी प्रबंध करवाऊंगी.
इसे भी पढ़ें: लीविंग नो वन बिहाइंड: एक समावेशी समाज का निर्माण
नूरी सलीम के जीवन का एकमात्र जुनून यही है कि वह उन बच्चों के लिए अपनी एक छत बना सके जिन्हें वह गोद लेती हैं और उन्हें वह जीवन दे सके जिसके वे हकदार हैं. अभी वह अपने बच्चों के साथ एक किराए की संपत्ति में रह रही हैं. आखिर में वह एक संदेश देते हुए कहती है कि, “जब मैं अपने आप को दर्पण में देखती हूं, तो मुझे अच्छा लगता है यह देखकर कि, मैं उस व्यक्ति को देख रही हूं जिसने अन्य लोगों के जीवन का निर्माण किया है. मुझे उम्मीद है कि जब तक मैं जिन्दा हूं तब तक मैं इस मुहीम को जारी रखने की कोशिश करुँगी. आशा है कि हम एक ऐसा आशियाना जरूर बना लेंगे जिसे मैं और मेरे बच्चे घर कह सकेंगे. तब तक, मैं बस यही उम्मीद करती हूं कि मेरे जैसे कई और लोग हैं जो आगे आ सकते हैं और उन लोगों के लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं जो जीवन में पीछे छूट गए हैं.