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वर्ल्ड मेंटल हेल्थ डे 2023: भारत के हालात- बड़ी कामयाबी या लंबी दूरी? एक्सपर्ट्स ने बताया

मानसिक स्वास्थ्य और उससे जुड़ी बीमारियों के मामले में भारत कितना आगे निकल गया है, यहां देखिए एक्सपर्ट्स क्या कहते हैं

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इस साल की थीम 'मानसिक स्वास्थ्य एक यूनिवर्सल मानव अधिकार' है, जिसका उद्देश्य मानसिक बीमारी को एक मौलिक, निर्विवाद अधिकार बनाना और जिस दुनिया में हम रहते हैं उसे और मानवता की ओर ले जाना है

नई दिल्ली: विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का बर्डन प्रति 1,00,00 की जनसंख्या पर 2,443 विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष (DALYs) है. 2019 की लैंसेट रिपोर्ट – “द बर्डन ऑफ मेंटल डिसऑर्डर्स एक्रॉस द स्टेट्स ऑफ इंडिया : द ग्लोबल बर्डन ऑफ डिसीज स्टडी 1990–2017 (The burden of mental disorders across the states of India: the Global Burden of Disease Study 1990–2017)” में कहा गया है कि 2017 में, देश में तकरीबन 197.3 मिलियन लोगों को मानसिक विकार यानि कि मेंटल डिसऑर्डर्स थे, जिनमें 45.7 मिलियन डिसऑर्डर्स डिप्रेशन से जुड़े हुए और 44.9 मिलियन डिसऑर्डर्स एन्जाइटी से जुड़े हुए हैं. लैंसेट रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल DALY में मेंटल डिसऑर्डर्स तेजी से बढ़ रहे हैं, जो 1990 में 2.5 प्रतिशत से बढ़कर 2017 में 4.7 प्रतिशत हो गए हैं.

भारत आज (10 अक्टूबर) मानसिक स्वास्थ्य दिवस मना रहा है. जिसकी थीम है ‘मानसिक स्वास्थ्य एक यूनिवर्सल मानव अधिकार (Mental Health, a universal human right)’. इस उद्देश्य के साथ कि मानसिक स्वास्थ्य एक मूलभूत और जरूरी अधिकार है, जो इस दुनिया को, जिसमें हम रहते हैं उसे और अधिक मानवीय बना सकता है. एनडीटीवी ने विशेषज्ञों से बात की और भारत की स्थिति के बारे में जाना कि क्या देश ने इस मुद्दे पर कोई बड़ी कामयाबी हासिल की है या फिर अब भी लंबा रास्ता तय करना है.

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इस चर्चा में शामिल होते हुए लिव लव लाफ फाउंडेशन के साइकाइट्रिस्ट और चेयरपर्सन डॉ. श्याम भट ने कहा,

हमने काफी प्रोग्रेस की है, जागरुकता और मानसिक इश्यूज को समझने के मामले में भी हम काफी आगे बढ़ चुके हैं. हमारी बातचीत अब काफी ज्यादा उन विषयों पर आधारित ही होती है. लेकिन हमारे देश में ये समस्या काफी बड़ी है. भारत में तकरीबन हर परिवार किसी न किसी किस्म की मानसिक बीमारी से गुजर रहा है. भारत में लगभग 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जो डिप्रेशन या फिर एन्जाइटी जैसी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहे हैं. इसलिए एक देश के तौर पर, ये महत्वपूर्ण है कि समस्या से निपटने के लिए पूरी ताकत लगा दी जाए और मानसिक स्वास्थ्य के प्रिवेंशन और उपचार में मदद की जाए.

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को स्वीकार करने के महत्व पर बात करते हुए लिव लव लाफ फाउंडेशन की सीईओ अनीशा पादुकोण ने कहा,

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को अपनाने से सबकुछ शुरू होता है. जब हम एक बार बीमारी को स्वीकार कर लेते हैं और समझने लगते हैं कि मानसिक रोग को भी दूसरी बीमारियों की तरह ट्रीट किया जा सकता है. जैसे डायबिटीज, दिल से जुड़े रोग, उसके बाद ही हम कुछ प्रोग्रेस कर सकते हैं. बीते 7-8 साल में हमने कुछ प्रगति की है, हमने इन मुद्दों पर बात करना शुरू किया है लेकिन अब भी लंबा रास्ता तय करना है.

डिप्रेशन और एन्जाइटी के साथ व्यक्तिगत संघर्ष को साझा करते हुए पब्लिक रिलेशन स्पेशलिस्ट रचिता मोहन ने जिंदगी में सपोर्ट सिस्टम की अहमियत पर जोर दिया. उन्होंने कहा,

मैं खुशनसीब थी कि मेरे अभिभावकों ने मेरे सफर में पूरा साथ दिया. मुझे लगता है कि सपोर्ट सिस्टम का होना बहुत जरूरी है. शुरुआत में मेरे बहुत से दोस्तों ने मेरी समस्या को नहीं समझा, जिसे देखते हुए मैंने खुद को ही रोक लिया. लोग मुझसे कहा करते थे कि एन्जाइटी एक खास किस्म की तकलीफ है. लेकिन शुक्र है कि मेरे परिवार ने इस परेशानी को समझा और मुझे सही समय पर सही उपचार मिल सका. बीते आठ सालों में हमने खूब प्रगति की है और लंबा रास्ता तय किया है, ऐसा मुझे नहीं लगता कि आठ साल पहले मैं अपनी मानसिक सेहत के संबंध में बात कर पाती. इसलिए हां, समस्या से जुड़ी जागरुकता के संदर्भ में वाकई काफी प्रगति हुई है.

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क्या देश ने कोविड से पहले और बाद में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों के संबंध में कोई बदलाव देखा है, इस पर डॉ. भट्ट ने कहा,

कोविड के बाद लोगों को ये अहसास तो हो ही गया कि डिप्रेशन और एन्जाइटी अलग किस्म के लोगों को नहीं होती है. उन्हें ये अहसास हो चुका है कि ये किसी को भी या सभी को हो सकती हैं. हमें ये भी समझ में आ गया कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या होना आम बात है और इसके बारे में बात करना भी सामान्य है. मुझे लगता है कि, कोविड ने वाकई मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करने में काफी मदद की है.

आखिर में अनीशा पादुकोण ने मानसिक स्वास्थ्य के मामले में ग्रामीण और शहरी सोच के फर्क के बारे में बात की. उन्होंने ये कहते हुए अपनी बात खत्म की,

जब हम मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करते हैं तो ग्रामीण और शहरी दोनों जगहों की चुनौतियां अलग अलग होती हैं. इसलिए बीमारी से निपटने का हमारा तरीका भी अलग ही होगा. हमारे देश की आबादी का 70 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता है. इसलिए वहां भी इससे जुड़े कार्यक्रम होना जरूरी होता है. हालांकि भारत में अब कार्यक्रम का इम्पिलिमेंटेशन शुरू हो चुका है लेकिन जब भी इससे जुड़ा अंतर खत्म करने की बात होगी तो हमें वाकई एक लंबा रास्ता तय करना है.

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डिस्क्लेमर : सलाह सहित यह कंटेंट केवल सामान्य जानकारी प्रदान करता है. यह किसी भी तरह से योग्य चिकित्सा राय का विकल्प नहीं है. अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ या अपने डॉक्टर से परामर्श लें. एनडीटीवी इस जानकारी के लिए जिम्मेदारी का दावा नहीं करता है.

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