ब्रुसेल्स: चीन में पड़ रहीं रिकार्ड तोड़ गर्मी. स्विजरलैंड के लोगों को अपना घर खाली करने पर मजबूर करने वाली जंगल की आग.स्पेन में पड़ा हुआ सूखा. जैसे-जैसे क्लाइमेंट चेंज की वजह से नुकसान पूरी दुनिया में बढ़ता जा रहा है. वैसै वैसे एक सवाल खड़ा हो रहा है कि इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा. इस हफ्ते यूएसए और चीन के बीच जलवायु को लेकर हुई बैठक के बाद यह सवाल उठकर सामने आया. जहां विश्व की दो बड़ी आर्थिक महाशक्तियों ने इस साल दुबई में होने वाली यूएन की क्लाइमेट समिट के ठीक पहले. साथ में काम करके रिन्यूएबल एनर्जी को लाने और साथ ही क्लाइमेट चेंज को फाइनेंस करने की बात कही है.
चीन की अर्थव्यवस्था में होने वाली बढ़ोतरी और उत्सर्जन की वजह से बीजिंग पर इस फंडिंग में शामिल होने का दवाब बढ़ा है.
बीजिंग में हुई बातचीत के समय. यूएस के क्लाइमेट एनवॉय जॉन कैरी ने कहा कि जब तक नवंबर 30 से COP28 कांफ्रेंस शुरू नहीं हो जाती तब तक दोनों पक्षों के बीच लगातार आने वाले चार महीनों में क्लाइमेट फाइनेंस के ऊपर चर्चा होती रहेगी .
यूरोपियन यूनियन के एक डिप्लोमेट ने रॉयटर्स को बताया,
इस बात पर बहस करना मुश्किल है कि चीन. ब्राजील या सऊदी अरब जैसे देशों को अभी भी सबसे कम विकसित देशों और छोटे द्वीप विकासशील राज्यों के समान स्तर पर रखा जाना चाहिए.
क्लाइमेट फाइनेंस में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले ईयू ने इसे प्रदान करने वाले देशों के पूल का विस्तार करने की पैरवी की है.
क्लाइमेट फाइनेंस असल में वह पैसा है. जो विश्व के अमीर देश गरीब पिछड़े देशों को वहां का Co2 उत्सर्जन कम करने के लिए देते हैं.
अभी तक कुछ दर्जन अमीर देशों ने जो पैसा देने का वादा किया वह नहीं दिया है. इन फाइनेंसिंग देशों की लिस्ट को यूएन द्वारा 1992 में निर्धारित किया गया था. जब चीन इटली से भी छोटी आर्थिक शक्ति थी.
अब कुछ देश चीन से इसमें योगदान देने की मांग कर रहे हैं. यूएस ट्रेजरी सेकेट्री समेत अन्य अधिकारियों ने यह दावा किया है कि चीन के योगदान से इस यूएन क्लाइमेट फंड में एक अच्छी खासी बढ़ोतरी आएगी.
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कुछ अन्य देश जिनपर ठीक ऐसा ही दवाब बनाया जा रहा है वह हैं – कतर. सिंगापुर और यूएई. जो कि दुनिया के तीन सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय वाले देश हैं. चीन अभी तक तो उन बातों का विरोध करता आया जो उसे अमीर देशों की सूची में लाती है.
कैरी के साथ मंगलवार को हुई एक मीटिंग के दौरान चीनी प्रीमियर ली क्यूांग ने इस बात पर जोर दिया कि विकसित देशों को उनके द्वारा किए गए वादे के मुताबिक पैसे देने चाहिए. इसके साथ ही उत्सर्जन को कम करने में योगदान देने के लिए आगे आना चाहिए. उनके मुताबिक विकासशील देश भी अपनी क्षमता के अनुसार योगदान दे सकते हैं.
यह विरोध गंभीर चुनौतियों की तरफ इशारा करता है. यूएन की औपचारिक डोनर लिस्ट को बदलने के लिए अंतराष्ट्रीय सहमति की जरूरत होगी. ईयू के एक अधिकारी ने गोपनीयता बनाए रखने की शर्त पर यह बात बताई,
चीन और सऊदी अरब जैसे देशों से इस विषय में काफी विरोध सामने आ रहा है.
इस बदलाव की वकालत करने वालों की माने तो यह विस्तार 2025 में होने वाले यूएन के नए और बड़े क्लाइमेट फाइनेंस टार्गेट के पहले हो जाना चाहिए. देशों को अब भी इस टार्गेट के आकार के ऊपर बातचीत करनी चाहिए और निर्णय करना चाहिए की कौन कितना योगदान देगा.
जो भी देश सक्षम हों. उन्हें इस ग्लोबल क्लाइमेट फाइनेंस में योगदान देना चाहिए. ऐसा कहना था पाओलोलेई लूटेरू का जो कि छोटे द्वीपों के संगठन के एंबेसडर हैं.
लूटेरू ने आगे कहा कि ज्यादा बड़ा मुद्दा यह है कि कौन से गरीब देश इस मदद को पाने की लाइन में आगे होंगे.
कौन जिम्मेदार है?
यूएन की तरफ से की गई क्लाइमेट फाइनेसिंग व्यवस्था इस सिद्धांत पर चलती है कि विश्व के अमीर देशों द्वारा इस क्लाइमेट चेंज की समस्या से लड़ाई लड़ी जाए. क्योंकि वही देश हैं जिनके द्वारा औद्योगिक क्रांति के समय से ही सबसे ज्यादा CO2 का उत्सर्जन किया है.
अमेरिका का ऐतिहासिक CO2 उत्सर्जन किसी भी अन्य देश की तुलना में ज्यादा है. लेकिन चीन आज के समय में दुनिया का सबसे ज्यादा CO2 उत्सर्जन वाला देश है.
COP28 में देशों को ऐतिहासिक जिम्मेदारी के सवाल का सामना करना पड़ेगा. क्योंकि उनका लक्ष्य कमजोर स्टेट्स को जलवायु-ईंधन वाली प्राकृतिक आपदाओं में पहले से ही हो रही लागत की भरपाई के लिए एक नया फंड लॉन्च करना है.
ईयू द्वारा सालों से किए जा रहे प्रतिरोध को पिछले साल छोड़ दिया गया लेकिन सिर्फ इस शर्त पर कि और भी देश इस फंड में अपना योगदान देंगे. हालांकि देशों ने अभी यह तय नहीं किया की कौन कितना योगदान देगा.
यूएसए काफी समय से क्लाइमेट चेंज की भरपाई करने के लिए दिए जाने वालें पैसों को लेकर संजीदा रहा है.
कुछ देश जो यूएन के क्लाइमेट फंड में योगदान देने के लिए मजबूर नहीं हैं बावजूद इसके उन्होंने इसमें योगदान दिया है जैसे कि कतर और साउथ कोरिया. इसके अलावा भी कई देशों ने अन्य माध्यमों से मदद करनी शुरू कर दी है.
थिंक टैंक E3G के अनुसार. चीन ने कम विकसित देशों को जलवायु मुद्दों से निपटने में मदद करने के लिए 2015 में दक्षिण-दक्षिण जलवायु सहयोग कोष लॉन्च किया था और अब तक प्रतिज्ञा किए गए 3.1 बिलियन डॉलर में से लगभग 10 प्रतिशत डिलीवर किया है.
यह उन सैकड़ों अरबों का एक हिस्सा है. जो बीजिंग अपनी बेल्ट एंड रोड पहल. तेल पाइपलाइनों और बंदरगाहों सहित परियोजनाओं के समर्थन पर खर्च कर रहा है.
ऐसी व्यवस्थाएं देशों को बिना किसी बाध्यता के योगदान करने की अनुमति देती हैं. हालांकि यदि संयुक्त राष्ट्र निधि के बाहर ऐसा किया जाता है तो उन्हें सार्वजनिक रिपोर्टिंग के लिए कम कठोर मानदंडों का सामना करना पड़ सकता है – जिससे यह ट्रैक करना कठिन हो जाता है कि पैसा कहां जा रहा है और कितना भुगतान किया गया है.
ई3जी के सीनियर पॉलिसी एडवाइजर बॉयफोर्ड सांग ने कहा कि अधिक जलवायु वित्त की पेशकश बीजिंग के लिए अच्छी साबित होगी. उन्होंने कहा.
इससे चीन को कूटनीतिक ताकत हासिल होगी और वेस्टर्न डोनर्स पर जलवायु वित्त पर अपना दांव बढ़ाने का दबाव बनेगा.
कुछ मजबूर देश. फाइनेंस की धीमी रफ्तार से परेशान हैं और पैसे पाने के अन्य विकल्पों को खोज रहे हैं. बारबाडोस के नेतृत्व वाली ब्रिजटाउन पहल बहुपक्षीय विकास बैंकों के सुधार पर जोर दे रही है ताकि वे जलवायु परियोजनाओं के लिए अधिक सहायता प्रदान कर सकें.अन्य देशों ने धन जुटाने के लिए शिपिंग पर वैश्विक CO2 लेवी का समर्थन किया है.
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(यह स्टोरी एनडीटीवी स्टाफ की तरफ से संपादित नहीं की गई है और एक सिंडिकेटेड फीड से प्रकाशित हुई है.)