ताज़ातरीन ख़बरें

ब्लॉग: क्या भारत में ग्रामीण स्वास्थ्य निवेश महिलाओं को अपनी किस्मत खुद बनाने के लिए सशक्त बना सकता है?

अब समय आ गया है कि ग्रामीण महिलाओं के लिए तैयार की गई देखभाल प्रणाली की नए सिरे से कल्पना की जाए, जिसमें स्वास्थ्य देखभाल (healthcare) को हमारी सामाजिक प्रणालियों (social systems) के साथ जोड़ा जाए

Published

on

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 (National Family Health Survey 5) के मुताबिक, ग्रामीण भारत में केवल 67.9% गर्भवती महिलाओं को ही शुरुआती प्रसवपूर्व जांच की सुविधा मिल पाती है

रूमी जब स्कूल में थी तभी से उसने लगातार कुछ नया सीखने और अपने पैशन को पूरा करने जैसे कई सपने संजो लिए थे. इन्हीं सपनों को देखते हुए वो बड़ी हो रही थी लेकिन, उसके परिवार ने उसके भविष्य लिए कुछ अलग ही सोच रखा था – जिसमें विवाह, एक पति की देखभाल करना, जिसे उसने नहीं चुना था और बच्चों का पालन-पोषण करना शामिल था. रूमी के लिए आगे का जीवन एक संघर्ष के रूप में सामने आया, खुशियां जैसे अब उसके जीवन का हिस्सा नहीं थी. अपनी घर, जानी पहचानी जगह, रीति-रिवाजों को पीछे छोड़ते हुए, उसने खुद को अजनबी लोगों के बीच में पाया जो न तो उसे समझते थे और न ही उसकी परवाह करते थे. इस नए माहौल में किसी तरह तालमेल बिठाने के एक साल के भीतर, रूमी को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. आर्थिक संघर्षों ने उसके नए परिवार के लिए और मुश्किलें बढ़ा दीं, कई सालों के सूखे के कारण उसके परिवार की स्थिति और भी बदतर हो गई, जिसकी वजह से उसके पति, जो एक किसान थे, उन्हें खेती छोड़कर काम की तलाश में शहर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा.

इसे भी पढ़ें: ब्लॉग: सेल्फ-केयर के माध्यम से गर्भनिरोधक विकल्पों की पुनर्कल्पना

पति के जाने के बाद वो अपने सास-ससुर के साथ रहने लगी. एक दिन उसे ऐसी खबर का सामना करना पड़ा, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी. रूमी को अपने पति से मिलने के बाद पता चला कि वह गर्भवती है. वो इस खबर से खुश नहीं थी क्योंकि यह उसके सपनों का हिस्सा नहीं था, लेकिन उसके ससुराल वाले ये बात पता चलने पर बहुत खुश थे. हालांकि, उनकी खुशी ज्यादा समय तक नहीं रही. 17 साल की छोटी सी उम्र में रूमी ने एक लड़की को जन्म दिया. रूमी की तबीयत बिगड़ गई और नवजात शिशु का वजन बहुत कम था. कम उम्र में बच्चे को जन्म देने से शरीर पर कई हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं. इनमें गर्भावस्था, प्रसव और प्रसव के बाद स्वास्थ्य लाभ के दौरान कॉम्प्लिकेशन का बढ़ना, मां के स्वास्थ्य और स्वच्छता से संबंधित चुनौतियां शामिल होती हैं. रूमी ने खुद को इस अनचाहे बच्चे के लिए जिम्मेदार मान लिया, जिसे उसके ससुराल वालों की नजर में बोझ और अतिरिक्त खर्च समझा जाता था. वह ये सब देखकर हैरान थी.

मुझे यह सब क्यों सहना पड़ा? क्या मेरी मां को भी यही सब झेलना पड़ा था? और मेरी सास क्या उन्हें भी ये झेलना पड़ा था? अगर उनसे नहीं, तो मैं और किससे सवाल कर सकती हूं? क्या किसी को मेरी परवाह है?

रूमी की कहानी भारत की कई दूसरी महिलाओं से अलग नहीं है, उन्हें भी अपने जीवन में ऐसे संघर्षों का सामना करना पड़ा. भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे कई महिला-केंद्रित कार्यक्रमों के बावजूद, जमीनी हकीकत अब भी चुनौतीपूर्ण बनी हुई है. ग्रामीण भारत की गर्भवती महिलाओं में से केवल 67.9% को ही शुरुआती प्रसव पूर्व जांच की सुविधा मिल पाती है, और 46% को चार से कम विजिट मिल पाती हैं. 13% प्रसव अभी भी घर पर होते हैं, केवल 4% की देखरेख सर्टिफाइड हेल्थ केयर प्रोफेशनल के द्वारा हो पाती है. ग्रामीण भारत में, आज भी कम उम्र में विवाह किए जाते हैं, 20-24 आयु वर्ग की 27% महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र से पहले ही कर दी गई थी. कम उम्र में मां बनने से मां और शिशु दोनों के स्वास्थ्य को खतरा पैदा होता है. 23% बच्चों का वैक्सीनेशन यानी टीकाकरण नहीं हो पाता है. अर्ली ब्रेस्टफीडिंग यानी प्रारंभिक स्तनपान कराने की दर सिर्फ 42% है. चिंताजनक बात यह है कि बच्चों में स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कम ऊंचाई), वास्टिंग (ऊंचाई के हिसाब से कम वजन) और अंडरवेट के मामले बहुत ज्यादा हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey – NFHS) 5 के आंकड़ों को देखें तो, सर्वाइकल कैंसर की जांच दर केवल 2% है, जबकि स्तन कैंसर और मुंह के कैंसर की जांच दर केवल 1% है. यह स्थिति काफी निराशाजनक और चिंताजनक है, और साथ ही यह महिलाओं की देखभाल के लिए भारत के नजरिए में तत्काल सुधार की आवश्यकता पर रोशनी डालती है.

इसे भी पढ़ें: विचार: परिवार नियोजन तथा यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं में पोषण कार्यक्रम को शामिल करें

हेल्थ केयर, सेनिटेशन और ओवरऑल हाइजीन में रुकावटों का सामना करने वाली रूमी और उसके जैसी दूसरी अनगिनत महिलाओं के लिए, महिलाओं के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों से जुड़ा स्टिग्मा यानी कलंक उनकी चुनौतियों को और बढ़ा देता है.

इन विपरीत हालातों के बावजूद, महिलाएं सामाजिक न्याय और समानता-केंद्रित कार्यों में आज आगे बनी हुई हैं, और ग्रामीण भारत में नई सोच ला रही हैं. अब समय आ गया है कि हम अपने दृष्टिकोण को बदलें और महिलाओं की देखभाल के लिए जो मौजूदा सिस्टम है उसमें जरूरत के हिसाब से बदलाव लाएं. एक ऐसा सिस्टम बनाएं जहां उनकी आवाज को बल मिले और उन्हें सशक्त बनाया जा सके.

भारत सरकार और राज्य सरकारें महिलाओं के लिए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम जैसे कई कार्यक्रम चला रही हैं; आंगनवाड़ी केंद्र (Anganwadi Centers) पोषण, प्रारंभिक बचपन की शिक्षा (early childhood education) जैसी कई सेवाएं प्रदान करते हैं, मासिक ग्राम स्वास्थ्य स्वच्छता और पोषण दिवस लोगों के घरों तक कई सेवाओं को पहुंचा रहा है, जो खासतौर पर महिलाओं को ध्यान में रखते हुए प्रजनन और बाल स्वास्थ्य सेवाओं पर केंद्रित होती हैं. VHSND (Village Health Sanitation and Nutrition Day) कम्युनिटी आउटरीच के साथ डिजाइन की गई विभिन्न सेवाएं लाती है. आयुष्मान आरोग्य मंदिर भी महिलाओं और बच्चों के लिए सेवाएं प्रदान करता है.

हालांकि इतने सारे सरकारी कार्यक्रमों के बावजूद भी परिणाम संतुष्टिजनक नहीं हैं. सभी कार्यक्रम और सेवाएं प्रजनन और यौन स्वास्थ्य के साथ-साथ बाल स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में महिलाओं के सामने आने वाली सभी चुनौतियों को संबोधित करने में चूक गए हैं.

क्या होगा यदि देखभाल की एक नई प्रणाली पुरुषों और लड़कों सहित परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे की देखभाल करने के लिए प्रोत्साहित करे?

क्या यह नई देखभाल प्रणाली महिलाओं को उनकी आवश्यकताओं के मुताबिक स्वास्थ्य देखभाल हासिल करने में मदद कर सकती है?

क्या यह महिलाओं की बेहतर मदद करने के लिए उनके वर्क प्लेस और नेटवर्क के भीतर स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों को जोड़ सकती है?

और जो लोग अपने आस-पास में आवश्यक संसाधनों तक नहीं पहुंच सकते, क्या इस नई देखभाल प्रणाली के जरिए उन तक पहुंचा जा सकता है?

इसे भी पढ़ें: राय: “Shhhhhh…” से व्यापक कामुकता शिक्षा तक

एक ऐसे भविष्य की कल्पना करें जहां देखभाल की नई प्रणालियां महिलाओं को अपने खुद के चुने रास्ते पर चलने में मदद करेंगी. एक ऐसे भविष्य की कल्पना करें जहां रूमी और उसके जैसी अनगिनत दूसरी महिलाएं अपने देखे सपनों को पूरा करने के लिए आगे बढ़ सकेंगी, और अपने जीवन के फैसले खुद ले सकेंगी, जिसमें उनके परिवार, दोस्त और पड़ोसी उनका साथ देंगे. कल्पना कीजिए अगर रूमी ने अपने भविष्य को लेकर उम्मीदें संजोई होती, न कि वो इससे डरी होती. डेमोक्रेटिक डेवलपमेंट डिजाइन (democratic development design) यही सब हासिल करने की कोशिश करता है.

अब, दूसरे विकल्प पर विचार करें – एक ऐसा भविष्य जहां वह ये सब नहीं कर सकेगी. तो फिर सोचिए, भारत का भविष्य क्या होगा?

(यह लेख ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया (TRI) की पहल, लीप डिजाइन के CEO आंद्रे नोगीरा (André Nogueira) और ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया में एसोसिएट डायरेक्टर – पब्लिक हेल्थ एंड न्यूट्रिशन और नेबरहुड्स ऑफ केयर (NoC) के प्रमुख श्यामल संतरा (Shyamal Santra) द्वारा लिखा गया है.)

डिस्क्लेमर: ये लेखकों की अपनी निजी राय है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Exit mobile version