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प्राइड मंथ स्पेशल: भारत LGBTQIA+ समुदाय के लिए समान स्वास्थ्य देखभाल की चुनौती से कैसे निपट सकता है?
एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के लिए समान स्वास्थ्य देखभाल की चुनौती से निपटने के साथ ही भारत की आवश्यकता को समझने के लिए ट्रांसजेंडर हेल्थ फॉर यूटीएच-यूनाइटेड की संस्थापक डॉ. साक्षी ममगैन के साथ बातचीत
नई दिल्ली: 2020 ILGA (इंटरनेशनल लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांस एंड इंटरसेक्स एसोसिएशन) की वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 43 देशों में अभी भी LGBTQIA+ समुदायों के लिए कोई सुरक्षा नहीं है और 70 देश समलैंगिक यौन गतिविधियों को अपराध मानते हैं, जिनमें से कुछ में इसके लिए मृत्युदंड का भी प्रावधान है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हेल्थ सिस्टम में LGBTQIA+ व्यक्तियों को केवल उनकी इस पहचान के चलते लगातार दंडित किया जा रहा है. उन्हें रक्तदान न करने देना, बीमा और आवास जैसे सामाजिक लाभों में भागीदार न बनाया जाना जैसी चीजें इसमें शामिल हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि समुदाय के सदस्यों को कई अन्य प्रकार के भेदभावों का भी सामना करना पड़ता है, जिसमें गलत लिंग दर्ज किया जाना और आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध न कराया जाने जैसी बातें काफी आम हैं.
हम एलजीबीटीक्यू आवाजों को उठाने, उनके बुनियादी अधिकारों का समर्थन करने और जून के महीने में इस समुदाय के लिए गौरव माह मनाते हैं. अपनी इसी पहल के तहत ‘टीम बनेगा स्वस्थ इंडिया’ ने एलजीबीटीक्यूआईए+ से जुड़े मुद्दों पर एक विशेष अतिथि के साथ की. इस बार हम ट्रांसजेंडर हेल्थ के लिए यूटीएच-यूनाइटेड की संस्थापक डॉ. साक्षी ममगैन के साथ बात कर रहे हैं. हमने इस समुदाय की जरूरतों को समझने के लिए समुदाय के लिए समान स्वास्थ्य देखभाल की चुनौती से निपटने जैसे विषयों पर उनसे लंबी चर्चा की.
डॉ. साक्षी ममगैन एक प्रैक्टिसिंग फिजिशियन हैं और समलैंगिक और ट्रांस स्वास्थ्य की प्रबल समर्थक हैं. उनका मानना है कि एलजीबीटीक्यूआईए+ के लिए हेल्थ केयर में समानता केवल सामुदायिक नहीं, बल्कि एक मानवाधिकार से जुड़ा मुद्दा है. उन्होंने ट्रांसजेंडर हेल्थ के लिए यूटीएच-यूनाइटेड की शुरुआत की, जो भारत के देहरादून में स्थित एक संगठन है, जिसका उद्देश्य ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए स्वास्थ्य सेवा को गैर-भेदभावपूर्ण और सुलभ बनाना है, साथ ही LGBTQIA+ समुदाय के मानसिक कल्याण और अधिकारों पर भी ध्यान देना है.
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पेश है डॉ. साक्षी ममगैन के साक्षात्कार के मुख्य अंश:
एनडीटीवी: राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुमान के मुताबिक भारत में करीब 104 मिलियन लोग (कुल आबादी का करीब 8%) LGBTQIA+ समुदाय के सदस्य हैं, इतनी बड़ी संख्या के बावजूद, भारत में समुदाय के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच एक चुनौती बनी हुई है. . आपको क्या लगता है, कमियां कहां-कहां हैं?
डॉ. साक्षी ममगैन: LGBTQIA+ समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली यह बड़ी संख्या के बावजूद अक्सर इस समुदाय को कम करके आंका जाता है और देश में उनकी तादाद के मामले में गलत बयानी की गई जाती है. 2022 के राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण के अनुसार, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ, लगभग 20 प्रतिशत आबादी ने खुद को LGBTQIA+ समुदाय का बताया. सुरक्षा बाधाएं, सामाजिक या धार्मिक वजहें, होमोफोबिया/ट्रांसफोबिया और समाज में रोल मॉडल्स की कमी जैसी चीजें इनकी राह में बाधक बनती हैं. साथ ही ये बातें लोगों के लिए इस तरह के सर्वेक्षण में ईमानदारी से शामिल होने से भी रोकती हैं. इसलिए, मेरी राय में यह आंकड़ा हकीकत से काफी दूर है. इस समुदाय के लिए हेल्थ केयर सुविधाओं की कमी के बारे में बात करते हुए, साक्षी कहती हैं कि ट्रांसजेंडर के स्वास्थ्य को आमतौर पर पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है. भारत में मेडिकल पाठ्यक्रम से भी यह गायब है. यह स्पष्ट रूप से जागरूकता की कमी के कारण है और यह कलंक इतनी गहराई तक जड़ें जमा चुका है कि इनके साथ हर जगह भेदभाव होता है और यह भेदभावों क्लीनिकों और अस्पतालों में भी देखने को मिलता है.
एनडीटीवी: जब LGBTQIA+ समुदाय की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करने की बात करें, तो सुविधाओं और चिकित्सा सुविधा के मामले में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में कौन सी बुनियादी या ढांचागत कमियां हैं? क्या इस संबंध में WHO द्वारा कोई निर्धारित मानदंड हैं, जिनका भारत को पालन करने की आवश्यकता है?
डॉ. साक्षी ममगैन: दुर्भाग्यवश इस मामले में वैश्विक स्तर पर भी बहुत अधिक प्रगति नहीं हुई है. W-path (वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांसजेंडर हेल्थ) नामक एक वैश्विक संगठन है, जिसने LGBTQIA+ समुदाय के लिए दिशा-निर्देश तय किए हैं. जहां तक भारत की बात है, तो हमारे यहां LGBTQIA+ समावेशी नीतियों और दिशा-निर्देशों का स्पष्ट तौर पर घोर अभाव है. इस दिशा में कुछ दिशा-निर्देश जारी करने और स्पष्ट नीतियां लाने से इस समुदाय को मुख्यधारा में लाने में मदद मिल सकती है. यह समान स्वास्थ्य देखभाल के अधिकार के साथ-साथ एक भेदभाव विहीन समाज के निर्माण में भी मदद करेगा.
एनडीटीवी: यह देखते हुए कि LGBTQIA+ समुदाय में भी काफी विविधता है और किसी ट्रांसजेंडर की जरूरतें एक समलैंगिक व्यक्ति से भिन्न हो सकती हैं, क्या आप इनमें से कुछ अंतरों को समझाने और इस समुदाय की आवश्यकताओं को समझ कर इसके प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने से जुड़ी कुछ प्रमुख बातों के बारे में बताएंगी?
डॉ. साक्षी ममगैन: यूटीएच (यूनाइटेड फॉर ट्रांसजेंडर हेल्थ) में हमने एक ऐसी दुनिया की कल्पना की है, जहां मरीज की देखभाल में मानसिक स्वास्थ्य भी शामिल हो और सबकुछ भेदभाव रहित हो. इस तरह की प्रणाली बनाने के लिए हमें इससे जुड़े कई पक्षों (स्टेकहोल्डर्स) के सहयोग और प्रयासों की जरूरत है. अब समय आ गया है कि हम LGBTQIA+ समुदाय के लिए सिस्टम लाएं. जब तक हमारी शिक्षा प्रणाली में ट्रांसजेंडरों के बारे में जानकारी शामिल नहीं की जाती, तब तक हम ऐसे प्रोफेशनल्स को ही तैयार करते रहेंगे, जो सांस्कृतिक स्तर पर इसे समझने में सक्षम नहीं होंगे.
एनडीटीवी: समलैंगिक समुदायों के लोगों को लगता है कि हमारे देश में कई बार इस समुदाय की गलत डाइग्नोसिस होती है, क्योंकि समलैंगिक लोगों की स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकताओं के बारे में जागरूकता की कमी है और समझ सीमित है. यह बात कहां तक सच है?
डॉ. साक्षी ममगैन: विषय के विशिष्ट ज्ञान और शिक्षा की कमी के कारण LGBTQIA+ समुदाय के लिए गलत डाइगनोस्टिक हो सकती है. सही शिक्षा के बिना, गलत धारणाएं और रूढ़ियां हमेशा बनी रहेंगी और भारत में इसकी मुख्य वजह इस बारे में शिक्षा और जागरूकता की कमी है.
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एनडीटीवी: ट्रांसजेंडरों के लिए या पोस्ट या प्री-सर्जरी केयर को लेकर भारत में किस तरह की चुनौतियां हैं?
डॉ. साक्षी ममगैन: सभी सर्जरी की तरह, ट्रांसजेंडरों की सर्जरी के बाद की देखभाल भी बहुत ही महत्वपूर्ण होती है. भारत में, ट्रांसजेंडर से जुड़ी हेल्थ केयर में विशेषज्ञता रखने वाले डॉक्टरों की कमी है. ऐसे जो भी चुनिंदा डॉक्टर मौजूद हैं, वह भी केवल उन ही रोगियों के लिए ही उपलब्ध हो पाते हैं, जो उनका महंगा खर्च उठाने में सक्षम हैं. आम तौर पर हमारे देश में ट्रांसजेंडरों के इलाज के लिए स्टैंडर्ड दिशानिर्देशों और प्रोटोकॉल का अभाव है. यह सारी कमियां ही आखिरकार हेल्थ केयर में असमानता को जन्म देती हैं और इस समुदाय के लिए पर्याप्त सहायता उपलब्ध करा पाने में बाधा उत्पन्न करती हैं.
एनडीटीवी: हार्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी (एचआरटी) क्या है और यह भारत में कितनी आसानी से उपलब्ध है?
डॉ. साक्षी ममगैन: एचआरटी या हार्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी एक ऐसा चिकित्सा उपचार है, जो हार्मोन के उपयोग से किया जाता है. यह उपचार लोगों के यौन लक्षणों में बदलाव लाता है. एचआरटी का उपयोग आमतौर पर ट्रांस व्यक्तियों द्वारा उनकी सामान्य देखभाल के तहत ही किया जाता है. एचआरटी में आमतौर पर एस्ट्रोजन और टेस्टोस्टेरोन जैसे हार्मोन वाली दवाओं का उपयोग होता है, जो किसी व्यक्ति की शारीरिक बनावट का उनकी लिंग पहचान के साथ मेल कराने करने में मदद कर सकता है. भारत में एचआरटी उपचार कराने में भी कई तरह की समस्याओं व बाधाओं का सामना करना पड़ता है. भारत में एचआरटी उपचार के लिए सबसे पहले तो किसी मनोवैज्ञानिक (साइकेट्रिस्ट) से प्रमाणपत्र प्राप्त करना आवश्यक होता है और फिर यह थेरेपी किस एंडोक्रिनोलॉजिस्ट के पास जा कर ही कराई जा सकती है. इस तरह की बाधाओं के कारण ही पारंपरिक हिजड़ा समुदाय को अक्सर ओवर-द-काउंटर दवाओं का सहारा लेना पड़ता है, जिनकी अगर जांच नहीं की गई तो घातक चिकित्सीय जटिलताएं हो सकती हैं. इस तरह यह सब सिस्टम में सुधार लाने पर ही निर्भर करता है.
एनडीटीवी: क्या LGBTQIA+ समुदाय के कई लोगों के लिए यौवन अवरोधक (प्यूबेटरी ब्लॉकर्स) अभी भी एक सपना है?
डॉ. साक्षी ममगैन: मैं कहूंगी कि हां, यह काफी हद तक एचआरटी जैसा ही है. प्रक्रिया लंबी है, सामर्थ्य, बीमा द्वारा कवर, चिकित्सा व्यय, और नैतिकता पर चल रही बहस, ट्रांस युवाओं के लिए यौवन अवरोधकों के उपयोग के बारे में जानकारी का अभाव आदि इसमें मुख्य समस्याएं हैं. इसे लेकर कोई व्यापक शोध आजतक मौजूद नहीं है, हालांकि ऐसा कहा जाता है कि अगर इसे निगरानी में किया जाए, तो यह एक सुरक्षित चीज है.
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एनडीटीवी: LGBTQIA+ समुदाय के लिए इलाज इतना दर्दनाक और महंगा क्यों है? इसे सुधारने के लिए क्या किया जा सकता है?
डॉ. साक्षी ममगैन: ऐसा नहीं है कि ट्रांसजेंडर लोगों के लिए इलाज बहुत दर्दनाक और महंगा होता है. बल्कि, सच तो यह है कि हमारे स्टाफ की बहुत कमी है. अधिकतर ऐसा होता है कि हमारे पास इनकी उचित स्वास्थ्य देखभाल प्रशिक्षित विशेषज्ञ नहीं होते. समय की मांग है कि ट्रांसजेंडरों के लिए स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इन मुद्दों को लेकर संवेदनशील बनाया जाए, तभी LGBTQIA+ के इलाज से जुड़ी समस्याओं को हल किया जा सकेगा.
एनडीटीवी: मानसिक स्वास्थ्य के मामले में LGBTQIA+ समुदाय के लिए कौन सी मुख्य चुनौतियांहैं?
डॉ. साक्षी ममगैन: जब मानसिक स्वास्थ्य की बात आती है, तो समुदाय को सामाजिक कलंक और भेदभाव के कारण काफी तनाव का सामना करना पड़ता है. आंकड़ों की दृष्टि से भी देखा जाए तो, ट्रांसजेंडरों में अवसाद, चिंता विकार, आत्महत्या की प्रवृत्ति के मामले अधिक होते हैं. यही स्थितियां अक्सर इन लोगों को नशे की ओर धकेलती हैं. हमें यह समझना होगा कि यह एक नाजुक विषय है. इस संकट से निपटने के लिए हमें मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की आवश्यकता है. हमारा लक्ष्य उस व्यक्ति की मदद करना होना चाहिए, न कि उस पर अपनी सोच व धारणाओं को थोपना. हमें यह समझने की जरूरत है कि उनकी जिंदगी हमारी जिंदगी जैसी नहीं है.
एनडीटीवी: स्वास्थ्य एक बुनियादी अधिकार है, LGBTQIA+ समुदाय के लिए समान स्वास्थ्य देखभाल की चुनौती से निपटने के लिए भारत को किन पांच चीजों को प्राथमिकता देने की जरूरत है?
डॉ. साक्षी ममगैन: शिक्षा पहली प्राथमिकता है. हमें इसपर बात करने की जरूरत है, इसके लिए आवाज उठाने की जरूरत है. हमें भावी पीढ़ियों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है और लोगों को उन विशिष्ट जरूरतों और देखभाल के बारे में जागरूक करने की जरूरत है, जिनकी इस समुदाय को जरूरत है. फिलहाल इस मामले में हम तैयार नहीं हैं. इनकी अपर्याप्त हेल्थकेयर की मुख्य वजह प्रशिक्षण की कमी है, यह एक व्यवस्थागत विफलता है और हम इसका दोष केवल डॉक्टरों और समाज पर नहीं डाल सकते. हमारे नियामक निकायों को नीतियां बनाने और एक आवश्यक प्रणाली लागू करने की जरूरत है. मैं स्वयं LGBTQIA+ समुदाय से हूं. मैं खुद को समलैंगिक और गैर-बाइनरी दोनों प्रकार के व्यक्ति के रूप में पहचानती हूं और मैं चिकित्सा और समुदाय दोनों ही चीजों को समझती हूं. LGBTQIA+ समुदाय के लोगों के लिए मेरा सुझाव यह होगा कि रोगियों को अपने डॉक्टरों पर थोड़ा और विश्वास करने की जरूरत है. मैं समझती हूं कि इस मामले में हमारे अंदर कुछ कमी है और हमें अभी लंबा रास्ता तय करना है, लेकिन हम एक बेहतर व्यवस्था बनाने और समाज की दिशा में काम करने की कोशिश कर रहे हैं. इसलिए, थोड़े धैर्य और ढेर सारे सामूहिक प्रयासों हम एक सकारात्मक बदलाव लाने में मदद कर सकते हैं.
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