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बच्चे और वायु प्रदूषण: जानिए बच्चों को वायु प्रदूषण से होने वाले प्रभाव से कैसे बचाएं

हेल्थ एक्सपर्ट्स का कहना है कि बच्चे, वयस्कों की तुलना में दो से तीन गुना तेजी से सांस लेते हैं, जिसकी वजह से उनके अंदर ज्यादा मात्रा में जहरीली हवा पहुंचती है और उनके फेफड़ों पर असर पड़ता है

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नई दिल्ली: वायु प्रदूषण यानी एयर पॉल्यूशन के खतरनाक स्तर की वजह से देश की राजधानी नई दिल्ली स्मॉग और धुंध की मोटी परतों में छुप गई है. सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि इससे सटे फरीदाबाद, नोएडा, भिवाड़ी, फतेहाबाद और जिंद सहित दिल्ली-एनसीआर के विभिन्न हिस्सों में भी गंभीर एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) दर्ज किया जा रहा है, जिससे लोगों की सेहत पर असर पड़ रहा है. 401 और 500 के बीच AQI (air quality index) को ‘गंभीर’ माना जाता है. इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह स्वस्थ लोगों और मौजूदा बीमारियों वाले लोगों को गंभीर रूप से प्रभावित करने में सक्षम है. WHO की गाइडलाइन के मुताबिक, हवा में PM2.5 का सालाना औसत 5 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए. जहरीली हवा को देखते हुए, दिल्ली-एनसीआर के अलग-अलग हिस्सों में 18 नवंबर तक स्कूल बंद कर दिए गए हैं, खासकर प्राथमिक कक्षाओं (primary classes) के लिए. वायु प्रदूषण बच्चों को क्यों ज्यादा प्रभावित करता है और क्या सावधानियां बरतने की जरूरत है? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए बनेगा स्वस्थ इंडिया की टीम ने मेडिकल एक्सपर्ट्स से बात की.

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गुरुग्राम में मेदांता-द मेडिसिटी में चेस्ट सर्जरी, चेस्ट ओन्को-सर्जरी और लंग ट्रांसप्लांट इंस्टीट्यूट के चेयरमैन डॉ. अरविंद कुमार ने कहा कि नवजात शिशु (Newborns) वायु प्रदूषण के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं. उन्होंने इसे विस्तार से समझाते हुए कहा,

एक वयस्क एक मिनट में लगभग 12-14 बार सांस लेता है, जबकि एक शिशु एक मिनट में 40 बार सांस लेता है. ज्यादा बार सांस लेते का मतलब है, शरीर में ज्यादा मात्रा में प्रदूषित हवा जाना. इसलिए शिशु और बच्चे वायु प्रदूषण के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील होते हैं. दूसरा कारण है कि शिशुओं में टिश्यू यानी ऊतक विकसित हो रहे होते हैं, और जब कोई केमिकल विकसित होते टिश्यू पर हमला करता है, तो नुकसान यानी डैमेज वयस्कों के टिश्यू की तुलना में कहीं ज्यादा होता है क्योंकि वयस्कों के टिश्यू पहले से ही विकसित होते हैं.

डॉ. अरविंद ने कहा, बच्चों के सांस लेने की दर ज्यादा होना स्कूलों को बंद करने की प्रमुख वजहों में से एक है. उन्होंने समझाया,

स्कूल में बच्चे एक क्लास से दूसरी क्लास में इधर-उधर भागते रहते हैं इससे उनके सांस लेने की दर बढ़ जाती है. यानी घर के अंदर बैठने की तुलना में स्कूल में ज्यादा मात्रा में जहरीली हवा उनके अंदर पहुंचती है. इसके अलावा, स्कूल सुबह शुरू होते हैं जब प्रदूषण का स्तर सबसे ज्यादा होता है.

डॉ. अरविंद ने कहा, घर के अंदर की हवा भी लगभग बाहर की तरह ही होती है. हालांकि हाईवे, सड़कों या इंडस्ट्रियल एरिया के पास प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा होता है.

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गुरुग्राम स्थित सीनियर कंसल्टेंट पीडियाट्रिशियन डॉ. शगुना महाजन ने बताया है कि वायु प्रदूषण के कारण खांसी और सांस फूलने की शिकायत वाले मरीजों में कम से कम 20-30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. बच्चों में सांस से संबंधित समस्याओं के बढ़ने का कारण बताते हुए डॉ. महाजन ने कहा,

बच्चों के फेफड़े (Lungs) वयस्कों की तुलना में अविकसित यानी अंडर डेवलप होते हैं, इसलिए वायु प्रदूषण से लड़ने की उनकी क्षमता भी वयस्कों के फेफड़ों की तुलना में बहुत कम होती है. वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से बच्चों के फेफड़ों को नुकसान पहुंचता है – जिससे उन्हें खांसी, अस्थमा, घरघराहट, ब्रोंकाइटिस और स्किन एवं आंखों की एलर्जी जैसी गंभीर बीमारियों का खतरा होता है.

फोर्टिस ला फेम के कंसल्टेंट पीडियाट्रिशियन एंड नियोनेटोलॉजिस्ट डॉ.अवधेश आहूजा ने कहा कि बच्चों को अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्युनिटी डेवलप करने में पांच से छह साल लग जाते हैं. इसलिए, शिशुओं और छोटे बच्चों में किशोरों या वयस्कों की तुलना में संक्रमण यानी इंफेक्शन होने की संभावना ज्यादा होती है. उन्होंने अपनी बात में जोड़ा,

हवा में मौजूद पार्टिकुलेट मैटर रात भर में नीचे बैठ जाते हैं. बच्चों की हाइट हवा में प्रदूषकों के अधिकतम स्तर की ऊंचाई के बराबर पर होती है. ध्यान देने वाली बात यह है कि ये वायु प्रदूषण के सिर्फ शारीरिक प्रभाव हैं. लेकिन स्कूलों को बंद करना और बच्चों को घर के अंदर रहने के लिए मजबूर करना उन्हें मानसिक और भावनात्मक तौर पर प्रभावित कर सकता है क्योंकि वे अपने दोस्तों से दूर रहते हैं और पूरा दिन स्क्रीन से चिपके रहते हैं.

डॉ. आहूजा ने कहा, वायु प्रदूषण की वजह से समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं की दर में वृद्धि होती है. उन्होंने जोड़ा,

समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं के फेफड़े पहले से ही क्षतिग्रस्त होते हैं और इस स्तर के प्रदूषण के संपर्क में आने से फेफड़े और भी ज्यादा प्रभावित होते हैं.

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अपने बच्चे को वायु प्रदूषण से बचाएं

डॉ. शगुना महाजन ने कहा कि जानलेवा हवा से बचने का एकमात्र तरीका स्वच्छ हवा में सांस लेना है. उन्होंने कहा,

इंसान इस स्तर के प्रदूषण को संभालने के लिए नहीं बना है. हमारे पास इस जहरीली हवा से लड़ने के लिए कोई इम्यून सिस्टम नहीं है और इससे बचने का एकमात्र तरीका इस हवा में सांस न लेना है.

हालांकि, कुछ सावधानियां हैं जो इस जहरीली हवा के खतरे और प्रभाव को कम करने के लिए अपनाई जा सकती हैं:

1. आउटडोर एक्टिविटी को कम करें: घर के अंदर प्रदूषण कम करें: इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल में रेस्पिरेटरी और क्रिटिकल केयर मेडिसिन के सीनियर कंसल्टेंट डॉ. निखिल मोदी का सुझाव है कि प्रदूषण जिस समय सबसे ज्यादा होता है यानी सुबह और शाम के समय बच्चों के लिए अपनी आउटडोर एक्टिविटी को कम करना जरूरी है. 0 से 5 साल की उम्र के बच्चों को कमजोर इम्युनिटी की वजह से प्रदूषण से सबसे ज्यादा खतरा होता है, इसलिए, डॉ. मोदी सुझाव देते हैं कि घर में झाडू लगाने या सफाई करने और अगरबत्ती और धूप जलाने से पैदा होने वाले प्रदूषण के खतरे को कम करें. डॉ. आहूजा ने कहा,

पर्दे और कालीन यानी कारपेट में धूल जमा हो जाती है. इसलिए घर के अंदर बहुत सारे कालीन रखने से बचें. और, किसी भी कमरे में झाड़ू लगाने के बाद, आधे घंटे तक इंतजार करे, धूल को नीचे बैठने दें और फिर बच्चों को उस कमरे के अंदर आने की इजाजत दें.

2. मास्क पहनें: सभी उम्र के लोगों को फेस मास्क पहनने की सलाह दी गई है, खासकर बाहर निकलते समय. डॉ. आहूजा ने समझाया,

मास्क आपको प्रदूषित हवा में सांस लेने से नहीं रोकेगा, लेकिन 2.5 माइक्रोमीटर से कम के छोटे कणों को फिल्टर कर देगा. लेकिन दो साल से कम उम्र के बच्चों को मास्क न पहनाएं.

3. एयर प्यूरीफायर का इस्तेमाल करें: डॉ. मोदी ने कहा, एयर प्यूरीफायर का इस्तेमाल एक अच्छा विकल्प है, खासकर उन बच्चों के लिए जो घर पर ज्यादा समय बिताते हैं. हालांकि, यह ध्यान रखना जरूरी है कि स्वस्थ बच्चों और व्यक्तियों के लिए जो नियमित रूप से बाहर जाते हैं, उनके लिए एयर प्यूरीफायर की सलाह नहीं दी जाती है.

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4. अपनी हेल्थ को मॉनिटर करें: मुंबई के जसलोक हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर में रेस्पिरेटरी मेडिसिन के कंसल्टेंट डॉ. निमिष शाह ने कहा कि खासतौर से अस्थमा की हिस्ट्री वाले बच्चों को ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए और पीक फ्लो मीटर से अपने अस्थमा को समय-समय पर मॉनिटर करते रहना चाहिए. यदि इसके लक्षण नियंत्रण से बाहर होते हैं तो तुरंत अपने पल्मोनोलॉजिस्ट से सम्पर्क करें.

5. हाइड्रेटेड रहें और पौष्टिक खाना खाएं: बच्चों के लिए हाइड्रेटेड रहना बहुत जरूरी है क्योंकि यह उनके रेस्पिरेटरी सिस्टम को नम रखने में मदद कर सकता है और प्रदूषण के कारण होने वाली किसी भी जलन को कम कर सकता है. इसके अलावा एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर फलों और सब्जियों को अपनी डाइट में शामिल करने से इम्यून सिस्टम को बूस्ट करने में मदद मिल सकती है.

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