नई दिल्ली: “मैं बैंगलुरु से करीब 60 किमी दूर एक छोटे से गांव चन्नापटना में उमेश के रूप में पैदा हुई थी. हम एक किसान परिवार से आते हैं और मेरे पिताजी मुझे भी किसान बनाना चाहते थे. लेकिन जिन्दगी को कुछ और ही मंजूर था, मुझे खेतों में काम करना अच्छा नहीं लगता था. मुझे मेरी मां के साथ घर के काम करने जैसे खाना बनाना, बर्तन धोना और घर का ख्याल रखने में ज्यादा खुशी मिलती थी. जब तक मैं चार साल की हुई, मैंने अपने आप को एक लड़की के रूप में स्वीकार कर लिया था.” ये कहना है 42 साल की उमा का जो पिछले 23 सालों से भारत में एक ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता के रूप में एलजीबीटीक्यूआईए समुदाय के लोगों के अधिकारों के लिए काम कर रही हैं.
उमा बैंगलुरु में जीवा नाम से एनजीओ भी चलाती हैं. जो कि प्रमुख रूप से एलजीबीटीक्यूआईए समुदाय के लोगों को एक मंच प्रदान करता है जिससे वह खुल कर सामने आ सकें और दुनिया के सामने अपनी असली पहचान रख सकें.
“उलझन में बीता मेरा बचपन”
उमा ने कहा “मुझे 7वीं क्लास के बाद स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकि स्कूल में मेरे साथ काफी भेदभाव होता था. मेरे दोस्त मुझे छक्का या हिजड़ा कहकर बुलाते थे. उन्होंने मेरी पहचान की वजह से मेरा बहिष्कार भी कर दिया. स्कूल में सिर्फ मैं ही एक अलग पहचान के साथ थी. मेरे जैसा वहां और कोई नहीं था. मैं अक्सर सोचा करती थी कि क्यों मैं ही यहां सबसे अलग हूं. मेरे मन में काफी उलझनें थीं और मैं मानसिक तनाव में रहने लगी थी. मेरे टीचर भी मुझे नहीं समझते थे, वह मुझे लगातार एक लड़की के बजाय लड़के की तरह व्यवहार करने के लिए कहते थे.”
“एक भारतीय परिवार में ट्रांसजेंडर होना काफी मुश्किल”
अपने परिवार और उनकी स्वीकृति के बारे में बताते हुए उमा कहती हैं,
मेरे पिताजी को मेरा लड़कियों की तरह व्यवहार करना पसंद नहीं था. वह मुझे पीटा भी करते थे. उन्होंने सूखी मिर्ची के धुएं से लेकर रोजाना मंदिर ले जाने तक हर मुमकिन कोशिश की लेकिन मैं नहीं बदली. मैं सिर्फ शरीर से ही लड़का था, जो कि अंदर से एक लड़की जैसा महसूस करता था. और इस बात को कोई भी बदल नहीं सकता था.
कुछ सालों के संघर्ष के बाद, उमा के पड़ोसियों ने उनके परिवार को सुझाव दिया, जो उनको इसका उपाय लग रहा था.
उन्होंने मेरे परिवार से कहा कि मेरी शादी एक लड़की से करवा दें. लेकिन मैंने इसका पुरजोर विरोध किया क्योंकि मैं किसी और के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती थी. उसके बाद मेरे मां-बाप मुझे अक्सर गालियां देते थे और मुझ पर शादी करने का दवाब डालते थे. जिसकी वजह से 17 साल की उम्र में मैंने घर से भागने का फैसला कर लिया.
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“अपने समुदाय से जुड़कर खुशी हुई, लेकिन काम के विकल्प केवल भीख मांगने और सेक्स वर्क तक ही सीमित थे”
उमा ने समझाया कि ट्रांसजेंडर समुदाय का हिस्सा बनकर तो वह खुश थी, लेकिन उनके पास काम करने के विकल्प बेहद ही कम थे. उन्होंने कहा,
हिजड़ा समुदाय के लोगों के लिए एक ही ऑप्शन हैं या तो भीख मांगो या सेक्स वर्क करो. मुझे इनमें से कुछ भी नहीं करना था. मैं अपने समुदाय के लोगों के लिए काम करना चाहती थी और उनके संघर्षों को समाज में सबकी नजर में लाना चाहती थी क्योंकि मैंने यह समझा कि समाज में उन्हें स्वीकृति मिलना कितना मुश्किल है.
यह साल 2011 की बात है, जब उमा खुल कर दुनिया के सामने आई और अपने जेंडर की पहचान के बारे में लोगों से खुलकर बात की. साल 2012 में उमा ने अपनी संस्था जीवा शुरू की क्योंकि वह चाहती थी कि ट्रांसजेंडर्स के लिए मंच होना चाहिए जहां से वह अपनी बात सबके सामने रख सके. उन्होंने कहा,
मैं अपने समुदाय के लिए एक सुरक्षित स्थान बनाना चाहती थी.
“42 साल की उम्र में, मैंने पूरी तरह से बदलने का निर्णय लिया”
उमा 42 साल की उम्र तक एक औरत की तरह रह तो रही थी लेकिन उन्होंने सर्जरी नहीं करवाई थी. अपने बदलाव के इस सफर के बारे में बताते हुए उमा कहती हैं कि,
मेरे सर्जरी ना कराने का एक कारण मेरी मां भी थी. उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम जैसे चाहे वैसे रहो बस सर्जरी मत करवाना. लेकिन इस पूरे जीवनकाल में मुझे कम से कम एक बार तो पूरी तरह एक औरत की तरह महसूस करना था और इसलिए मैनें 42 साल की उम्र में सर्जरी करवाई.
बदलाव के समय और चुनौतियों के बारे में बताते हुए उमा ने कहा,
सबसे पहले, मैं काउंसिलिंग और सर्जरी के लिए सही डॉक्टर की तलाश में एक साल भटकती रही. मुझे सही डॉक्टरों से सर्जरी के लिए जरूरी काउंसिलिंग सर्टिफिकेट मिलने में परेशानी हुई. एक बार सर्टिफिकेट मिलने के बाद, मुझे कई टेस्ट जैसे कि किडनी का, लीवर का, कोलेस्ट्रोल लेवल का हर एक चीज की जांच करवानी पड़ी. आखिरकार इस साल जुलाई में मेरी बॉटम सर्जरी हुई, जिसका खर्चा करीब 2.5 लाख रूपए था. यह सिर्फ सर्जरी का खर्चा था, इसमें लगातार काउंसिलिंग सेशन और चेकअप शामिल नहीं थे. सर्जरी के पहले जब मैं हॉरमोन थेरेपी ले रही थी तब मुझे इसके साइड इफेक्टस देखने को मिले जैसे कि मूड स्विंग्स, पेटदर्द आदि. सर्जरी के बाद, हालांकि मैं इसे करवाने को लेकर बहुत खुश थी लेकिन मेरी खुशी के ऊपर मेरा दर्द हावी हो रहा था. इस समय पर मैनें अपने परिवार को बहुत याद किया.
इस बदलाव की पूरी प्रकिया में, उमा ने काफी सारे सबक सीखें. उनके समुदाय में जो भी इस सर्जरी को कराना चाहता हैं उनसे अपने अनुभव को बांटते हुए, उमा ने कहा कि,
हमें सर्जरी के बाद अपना ख्याल खुद रखना पड़ेगा, अगर मुझसे पूछे तो एक साल रिकवरी टाइम है. हमे किसी ऐसे इंसान की जरूरत है जो हमारा ख्याल रख सके, बिना सहारे के यह राह आसान नहीं है. और रिप्रोडेक्टिव हेल्थ बहुत जरूरी है, हमें अपनी साफ सफाई का ध्यान रखना होगा. मैं अपने समुदाय से कहूंगी की काउंसिलिंग करवाएं, इससे बदलाव के इस सफर में काफी मदद होगी. दूसरी बात कि पैसे भी बचाओ क्योंकि यह ट्रीटमेंट काफी महंगा है. और तीसरी बात यह कि, यह समझना जरूरी हैं कि आपको कौन सी सर्जरी करवानी है, और उसके लिए सही डॉक्टर्स और अस्पतालों की रिसर्च करना जरूरी है. आखिर में, संयम रखें. समझें की बदलाव में समय लगेगा.
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“दुर्भाग्यवश, भारत में ट्रांसजेंडर्स की सर्जरी के लिए कोई सिस्टम नहीं है.”
अपने किसी पहचान वाले जो इस सर्जरी की प्रक्रिया से गुजर रहा था उसके बारे में बताते हुए उमा ने कहा कि भारत में ट्रांसजेंडर्स की हेल्थकेयर के लिए सुविधाएं सही नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि,
यह दुर्भाग्यपूर्ण हैं कि भारत में इस बारे में जानकारी बहुत ही कम है और यहां कोई सिस्टम भी नहीं है. हम में से कई लोग यह सर्जरी करवाना चाहते हैं लेकिन किसी भी तरह की जानकारी मौजूद नहीं है. आज भी हमारी सर्जरी हर अस्पताल में नहीं की जाती, यह सिर्फ कुछ चुनिंदा अस्पतालों में ही की जाती है. हाल ही में मेरी एक दोस्त की टॉप सर्जरी हुई, उसको अस्पताल की तरफ से रात में बुलाया गया और कहा गया की अकेले आना. उसकी सर्जरी सुबह चार बजे और 9:30 बजे हुई जिसके बाद उसे अस्पताल से जाने के लिए कह दिया गया. तब उसने मुझे फोन किया और जब मैं वहां गई तो एकदम हैरान थी. मैनें डॉक्टर्स को ऐसा ना करने को कहा और उसे एक आम मरीज की तरह ही देखने को कहा लेकिन किसी ने मेरी बात नहीं सुनी.
यह बात यहीं खत्म नहीं हुई. उमा बतातीं हैं कि,
जब मैनें वहां आवाज उठानी शुरू की तो वहां मौजूद एक डॉक्टर ने कहा कि यहां से चले जाओ शोर मत मचाओ. मैं एक असली महिला, तुम लोगों की तरह डुप्लीकेट कॉपी नहीं. मुझे यह सुनकर बहुत बुरा लगा.
उमा ने अपनी बात अपने समुदाय की तरफ से एक गुजारिश के साथ खत्म की, उन्होंने कहा,
मैं समाज से विनती करती हूं कि वह हमें सहानुभूति ना दिखाए. हम भी इंसान है, हम जैसे हैं हमें वैसे ही अपनाएं. हम भी इस समाज का हिस्सा हैं, और हम सब को एक दूसरे के प्रति इज्जत और एकजुटता का भाव रखना चाहिए.
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