• Home/
  • स्वस्थ वॉरियर/
  • मिले 55 साल के ‘वॉश वॉर्रियर’ से जिन्होंने बीते 33 सालों में 6 लाख टॉयलेट्स का किया निर्माण

स्वस्थ वॉरियर

मिले 55 साल के ‘वॉश वॉर्रियर’ से जिन्होंने बीते 33 सालों में 6 लाख टॉयलेट्स का किया निर्माण

55 साल के एस दामोदरन ने 1987 में एनजीओ ‘ग्रामालय’ की स्थापना की, जिसने 80 के दशक के मध्य में केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम से लेकर देश के दक्षिणी राज्यों में स्वच्छ भारत मिशन तक केंद्र सरकार के सभी स्वच्छता कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में मदद की.

Read In English
जागरूकता बढ़ाने से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब परिवारों को शौचालय और सुरक्षित पेयजल की मदद पहुंचाने में 55 वर्षीय एस दामोदरन ने 3 दशक बिताए हैं.
Highlights
  • श्री दामोदरन ने 500 स्कूलों में टॉयलेट्स का निर्माण करवाया.
  • ‘ग्रामालय’ ने गरीबों की पानी से जुड़ी सुविधाओं के इस्तेमाल में मदद का लक्ष्य रखा
  • श्री दामोदरन ने सफाई अभियान को बढ़ाने में समुदाय के नेताओं की भी मदद ली.

दक्षिण भारत में स्वच्छता को लेकर बड़ा बदलाव लाने वाले एस दामोदरन ने 35 साल पहले अपने कॉलेज के दिनों में तमिलनाडु में नेशलन सर्विस स्कीम को जॉइन किया. इसके बाद वे आसपास के गांव के इलाकों में जाने लगे और उन्हें अंदाजा नहीं था कि उनका ये कदम उनके जीवन में कितना बड़ा बदलाव लाने वाला है. तब वे महज 20 साल के थे. जिन इलाकों में वे जाते थे वहां पानी की कमी के अलावा लोगों में स्वच्छता को लेकर भी ज्ञान की कमी थी. 1987 से लेकर 1989 के अपने अनुभव के बाद दामोदरन ने एक गैर सरकारी ऑर्गेनाइजेशन ‘ग्रामालया’ की स्थापना की. अपने जीवन के करीब 3 दशक इस फील्ड में काम करने वाले दामोदरन ने दक्षिण भारत के कई राज्यों के 1000 से ज्यादा गांवों और शहरी बस्तियों में रहने वाले लोगों को पानी तो मुहैया कराया साथ ही उन्हें स्वच्छता के प्रति जागरूक भी किया. इन राज्यों में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल औरकेंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी का नाम शामिल है.

उन्होंने इन तीन दशकों के अनुभव में व्यक्तिगत रूप से करीब 6 लाख घरों में टॉयलेट बनवाए और अपने एनजीओ ‘ग्रामालय’ की मदद से करीब 500 स्कूलों में टॉयलेट्स का निर्माण करवाया. उनके ये कदम आज दक्षिण भारत में 30 लाख से अधिक लोगों की स्वच्छता की आदतों को प्रभावित कर रहे हैं. एनडीटीवी से बात करते हुए दामोदरन ने बताया कि उन्होंने गांवों में हैंड पंप स्थापित करके अपनी मुहीम की शुरुआत की.

इसके बावजूद लोग हाथों को धोने की आदत नहीं डाल रहे थे और इसका कारण था उन्हें हाथ धोने के महत्व का न पता होना. दामोदरन ने बताया कि इसके उन्होंने वर्कशॉप रखना शुरू की. दामोदरन के मुताबिक साल 1989 में ज्यादातर लोग खुले में शौच करने को मजबूर थे, इसलिए उन्होंने लोगों के घरों में शौचालयों का निर्माण करना शुरू किया. इसमें उन्होंने स्थानिय प्रशासन की मदद भी ली. स्थानिय प्रशासन साल 1986 में तत्कालिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा शुरू किए गए स्वच्छता प्रोग्रामसेंट्रल रूरल सैनिटाइजेशन प्रोग्राम (सीआरएसपी) के तहत दामोदरन की इस मुहीम में मदद करने लगा. सीआरएसपी वर्तमान के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू किए स्वच्छता अभियान से ही मिलता-जुलता अभियान था. खास बात है कि उस वक्त सीआरएसपी की मदद से गरीबी रेखा के नीचे आने वाले परिवारों को घरों में शौचालय बनाने के लिए पैसे भी दिए जाते थे. दामोदरन ने बताया कि हमने तमिलनाडु के स्लम और बाद में दूसरे इलाकों में सफाई को लेकर अभियान भी चलाए.

दामोदरन, उनके वालंटियर्स और समुदाय के नेताओं की एक टीम की कोशिशों के कारण तिरुचिरापल्ली के कलमंधई को 2002 में भारत का पहला खुले में शौच मुक्त इलाका घोषित किया गया. इसके बाद 2003 में तिरुचिरापल्ली के अन्य गांव को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया. देखा जाए तो करीब 15 साल बाद ‘ग्रामालय’ की मदद से 200 से ज्यादा स्लम इलाके और 300 गांव आज दक्षिण भारत में खुले में शौच की बीमारी से मुक्त हैं. केंद्र सरकार ने एनजीओ के पानी और सफाई से जुड़ी ट्रेनिंग के प्रयासों को सराहा और साल 2013 में पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने इसे नेशनल रिसोर्स सेंट्रर्स के रूप में मंजूरी दी. साल 2017 में उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने श्री दामोदरन को ‘टॉयलेट टाइटन अवॉर्ड’ से नवाजा.

लोगों के घरों में शौचालयों के निर्माण को लेकर भी श्री दामोदरन ने अपना अनुभव साझा किया. उन्होंने बताया कि एक समय पर लोग खुले में शौच की आदत को छोड़ना नहीं चाहते थे. लोग नदियों और तालाबों के किनारों पर खुले में शौच करते थे और इस कारण कई बीमारियां उनके घरों में दस्तक देती थीं. उन्होंने बताया कि घरों में शौचालय का निर्माण न करने का सबसे बड़ा कारण लोगों की मिथक और गलत धारणाएं होती थीं और वह कई गांवों में आज भी लोग ऐसा मानते हैं. इस वजह से लोगों के दिमाग में शौचालय को लेकर पैदा हुए भ्रम को दूर करना बेहद जरूरी बन गया. उन्होंने बताया कि घरों में शौचालयों के निर्माण के अलावा उसे इस्तेमाल करने के लिए भी उन्हें लोगों को जागरूक करना पड़ा. इसके लिए उन्होंने आईईसी यानी इनफार्मेशन, एजुकेशन और कम्युनिकेशन जैसी एक्टीविटी की मदद ली.

एनजीओ उन गांवों की पहचान करने के लिए एक सर्वेक्षण करता है जहां बनाए गए शौचालय की सुविधाओं का लाभ उठाने में लोगों का प्रतिशत सबसे कम है. एक टीम गांव के स्थानीय लोगों से मिलती है और फिर हर घर में जाकर उनकी स्वच्छता के बारे में जानकारी इकट्ठा करती है. इसके बाद एनजीओ ग्रामीणों को खुले में लाकर ग्राम सभा आयोजित करता है.अब वह स्वच्छता और इसके महत्व के बारे में लोगों को बताता है. इससे लोगों के दिमाग में बैठाया जाता है कि घर में शौचालय होना कितना जरूरी है.

शौचालय एक चार दीवार वाली बिल्डिंग से बढ़कर है, ये एक हेल्दी लाइफ देता है: श्री दामोदरन

‘ग्रामालय’ की ओर से बनाए गए शौचालयों के बारे में बताते हुए श्री दामोदरन ने बताया, हम ज्यादा लागत से बनने वाले शौचालयों के निर्माण से परहेज कर रहे हैं. हमने शुरू में सिंगल या डबल गड्ढे वाले टॉयलेट बनाए हैं. उन्होंने बताया कि बीते 10 साल में उनका थ्यान 4-4 फीट के डबल गड्ढे वाले शौचालयों के निर्माण पर रहा है. हालांकि उन्होंने अब स्मार्ट टॉयलेट्स बनाना करना शुरू कर दिया है. इसमें टॉयलेट की चौड़ाई 4 गुणा 8 फीट होती है, जिसमें शौच की सुविधा के अलावा नहाया भी जा सकता है. श्री दामोदरन के मुताबिक, उन्होंने दक्षिण भारत में 60,000 से ज्यादा स्मार्ट टॉयलट्स का निर्माण किया है. उनके मुताबिक इस तरह के टॉयलेट में एक गड्ढे के भर जाने के बाद दूसरे का इस्तेमाल किया जा सकता है. उनके मुताबिक एक गड्ढे को भरने में करीब 5 से 7 साल लगते हैं और जब तक दूसरा गड्ढा भरता है, पहले वाले में टॉयलट सूखकर मिट्टी बन जाती है. ये एक सेप्टिक टैंक से सस्ता तरीका है और इसे खाली करना भी आसान है. महत्वपूर्ण कारक यह है कि इन शौचालयों का निर्माण करने के लिए जिस तकनीक का इस्‍तेमाल किया जा रहा है वह लागत प्रभावी, इस्‍तेमाल योग्य और टिकाऊ है’

तमिलनाडु के पुदुकोट्टई जिले के एक गांव में रहने वाली महादेवी ने टॉयलेट के यूज को लेकर अपना अनुभव साझा किया. रोजाना बतौर लेबर काम करने वाली महादेवी ने बताया की उनकी दो बेटियां हैं और उनके खुले में शौच के लिए जाने के दौरान वह उनको लेकर काफी चिंतित रहती थीं. महादेवी ने बताया कि वह रोज यह सोचती थीं कि घर में टॉयलेट कैसे बनाया जाए. महादेवी और उनके परिवार को शौच के लिए कई किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता था. उन्हें ये स्थिति काफी अजीब महसूस करवाती थी. महादेवी ने बताया कि गर्भवती महिलाओं को भी शौच के लिए कई किलोमीटर चलकर जाना पड़ता था. हम ‘ग्रामालय’ के शुक्रगुजार हैं, उन्होंने हमें घर में टॉयलेट की सुविधा प्रदान की.

श्री. दामोदरन के मुताबिक उनकी इस पहल के बात उन्हें कई संस्थानों से वित्तिय सहायता भी मिलने लगी हैं, जिनमें सरकारी और गैर सरकारी संस्थान भी शामिल हैं. देश में स्वच्छता के विकास और स्वच्छता की सफलता के बारे में बात करते हुए, श्री दामोदरन ने कहा, ‘मैं यहां सकारात्मक तस्वीर पर ध्यान देना चाहूंगा. व्यवहार बदलना कोई आसान काम नहीं है, लेकिन पिछले कुछ सालों में, केंद्रित संदेश के साथ, सरकारें समुदाय से शौचालय की मांग उत्पन्न करने में सक्षम हैं. कहा जा रहा है कि अभी भी बड़ी संख्या में लोगों में जागरूकता की कमी है, जिन्हें जागरूक करने की जरूरत है. इसके साथ ही संसाधनों की कमी या तकनीकी जानकारी जैसी चुनौतियों ने भी स्वच्छता से जुड़े कार्यक्रमों में बाधाएं उत्पन्न की हुई हैं.

उन्होंने आगे कहा कि इन शौचालयों के निर्माण के बाद इनकी देखरेख भी एक अहम पहलू है. उन्होंने कहा, ‘हमने 20 से 30 साल पहले भी जिन शौचालयों का निर्माण किया, सरकार की योजनाओं की मदद से आज भी बेहतर देखरेख की जा रही है.’ हमने समुदाय के लोगों को भी इस देखरेख का हिस्सा बनाया, ताकि लोग साफ-सफाई मिलने पर इन टॉयलेट्स का इस्तेमाल करते रहे.

हाथ से शौच की गंदगी को ढोने की बुराई के बारे में बात करते हुए, श्री दामोदरन ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में और जिन झुग्गियों में ‘ग्रामालय’ काम करता है, वहां यह प्रथा लगभग समाप्त हो गई है. उन्होंने कहा,

जिन जगहों पर हम काम करते हैं, वहां शायद ही कोई सेप्टिक टैंक शौचालय है और इसलिए किसी को भी सेप्टिक टैंक और सीवेज की सफाई करके अपनी जान जोखिम में डालने की जरूरत नहीं है. दक्षिण भारत में राज्य सरकारें भी हाथ से शौच की गंदगी ढोने की प्रथा को खत्म करने पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं और मैला ढोने वालों को आजीविका के विभिन्न अन्य साधनों में पुनर्वास पर बहुत खर्च कर रही हैं.

शौचालय बनाने से भी कुछ और भी है जरूरी

शौचालय बनाने से भी कुछ और जरूरी है जैसे कि पीरियड के दौरान स्वच्छ प्रबंधन, ‘ग्रामालय’ दक्षिणी महिलाओं और लड़कियों के बीच मासिक स्वछता प्रबंधन यानी कि एमएसएच को बढ़ावा देने पर भी ज़ोर दे रहा है. पिछले 6 सालों के दौरान,आर्गेनाईजेशन ने 8 लाख से अधिक महिलाओं और लड़कियों तक अपनी मदद पहुंचायीं है, उन्हें यह बताया गया है कि किस तरह से मासिक के दौरान इको-फ्रेंड्ली पैड्स का इस्तेमाल करना चाहिए. यही-नहीं इस संगठन ने कई लड़कियों को अस्वच्छ मासिक प्रबंधन के तरीके बदलने की सलाह देते हुए उन्हें इको-फ्रेंड्ली पैड्स के इस्तेमाल की मदद तक मुहैया कराई है. डॉक्टर दामोदरन ने कहा,”जिन गांवों में हम पिछले कुछ सालों से काम कर रहे हैं, हम घर-घर जाकर महिलाओं और पुरुषों दोनों को मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता की शिक्षा दे रहे हैं.”

2018 में, मुसिरी शहर का एक वार्ड देश का पहला अर्बन एरिया और 2019 में, उप्प्लियाकुडी पंचायत का एटीके नगर गाँव रूरल एरिया बन गया हैं जहां 100 फ़ीसदी मासिक धर्म वाली महिलाएं और लड़कियां कपड़े के पैड का उपयोग कर रही हैं और सुरक्षित और प्लास्टिक -फ्री मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन का पालन कर रही हैं.

अमुथवल्ली जो कि एक इंजीनियर हैँ, उन्होंने डॉक्टर दामोदरन और उनके संगठन के तीन दशक लंबे काम की सराहना करते हुए कहा कि संगठन ने त्रिची में स्वच्छता के मायने को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने कहा अधिक आबादी वाले शहरों (एक लाख से अधिक) में स्वच्छ सर्वेक्षण 2019 में 39वें स्थान पर भी रह चुका हैं. उन्होंने आगे कहा कि, “हमने बीते सालों में ‘ग्रामालय’ के साथ कई शौचालय निर्माण, जागरूकता पैदा करने और क्षमता निर्माण वाले कार्यक्रम भी किए हैं. एनजीओ ने शहरी और गांव जैसे दोनों क्षेत्रों के लोगों के साथ एक अच्छा तालमेल हासिल किया है जो व्यवहार बदलाव पर ध्यान केंद्रित करने के लिए बहुत जरुरी है. डॉक्टर दामोदरन सिर्फ शौचालय निर्माण ही नहीं, बल्कि मल-कीचड़ प्रबंधन में भी शहर की मदद कर रहे हैं. वह अच्छा काम कर रहे हैं और मैं उनके साथ काम करते रहना चाहती हूं.”

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *