नई दिल्ली: बनेगा स्वस्थ इंडिया सीजन 9 के फिनाले में भारत में नवजात मृत्यु दर की मौजूदा स्थिति पर चर्चा करते हुए दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल की नवजात शिशु विशेषज्ञ पद्म भूषण विजेता डॉ. नीलम क्लेर ने कहा,“भारत में अभी भी 2.5 करोड़ बच्चे हर साल पैदा होते हैं यानी हम हर साल एक मिनी-ऑस्ट्रेलिया बनाते हैं.” डॉ. क्लेर ने कहा कि भारत ने नवजात मृत्यु दर को कम करने में कामयाबी हासिल की है. जीवन के पहले 28 दिनों के दौरान नवजात शिशु के मरने की संभावना जो साल 2015-2016 में 29 प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर थी वो 2019-2021 में घटकर 24 प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर रह गई है. उन्होंने कहा,
हमने बहुत बड़ी संख्या के साथ शुरुआत की थी, और अब हमने उस संख्या को काफी हद तक कम कर लिया है. हम प्रति हजार जीवित जन्मों पर इस संख्या को 24 पर ले आए हैं, पुराने आंकड़ों पर नजर डालें तो 1990 की तुलना में ये लगभग 60 प्रतिशत की कमी है, और इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए हमें खुद को बधाई देनी चाहिए.
भले ही राष्ट्रीय स्तर पर नवजात मृत्यु दर में गिरावट आई है लेकिन राज्यों के बीच इसमें काफी असमानता मौजूद है. डॉ क्लेर ने अपनी बात को समझाते हुए कहा,
हमने नवजात मृत्यु दर में कमी जरूर देखी है, लेकिन अगर हम ‘सबका साथ, सबका विकास’ के अपने लक्ष्य की दिशा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें कुछ असमानताओं पर खास ध्यान देने की जरूरत है. हमारे देश में केरल जैसे राज्य भी मौजूद हैं, जहां नवजात मृत्यु दर सिंगल डिजिट है, वहीं मध्य प्रदेश जैसे कुछ अन्य राज्य भी देश में मौजूद है जहां दोहरे अंक यानी डबल डिजिट में नवजात मृत्यु दर के मामले रिपोर्ट किए जा रहे हैं. इसके अलावा ग्रामीण और शहरी आबादी को देखें तो ग्रामीण इलाकों में नवजात मृत्यु दर के मामले काफी ज्यादा हैं.
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भारत की नवजात मृत्यु दर में सुधार
डॉ. क्लेर ने कहा कि अगर भारत को अपनी नवजात मृत्यु दर को कम करना है और अपने सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goal- SDG) प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 12 के आंकड़े को हासिल करना है, तो स्वास्थ्य देखभाल पर और ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है. उन्होंने कहा,
समग्र स्वास्थ्य देखभाल में व्यक्तिगत स्वच्छता बनाए रखना और माताओं एवं नवजात शिशुओं के लिए अस्पतालों में स्वच्छ वातावरण मुहैया कराना शामिल है. हमें सभी स्तरों पर स्वच्छता को प्राथमिकता देनी होगी – लोगों को हाथ धोने की तकनीक और स्वच्छता के उपाय सिखाने होंगे और अस्पतालों में वॉटर, सेनिटेशन और हाइजीन (WASH) सर्विस को मेंटेन रखना होगा क्योंकि यह उपाय नवजात मृत्यु दर को कम करने में योगदान देते हैं. लेकिन दुर्भाग्य से भारत के ज्यादातर अस्पताल WASH सेवाओं से लैस नहीं हैं और अस्पतालों में 24 घंटे पानी की सप्लाई की कमी है.
डॉ. क्लेर ने कहा कि अस्पतालों में साफ-सफाई पर खास ध्यान देना बहुत आवश्यक है, क्योंकि इससे सेप्सिस (Sepsis) जैसे संक्रमण होने की संभावना काफी कम हो जाती है. यूनिसेफ के मुताबिक, सेप्सिस स्वास्थ्य सुविधाओं (health facilities) में फैलता है और समग्र नवजात मृत्यु दर (overall neonatal mortality rate) में 15 प्रतिशत और मातृ मृत्यु दर (maternal mortality rate) में 11 प्रतिशत का योगदान देता है.
डॉ क्लेर का मानना है कि यदि इन सभी कमियों पर ध्यान दिया जाए तो भारत ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘लक्ष्य संपूर्ण स्वास्थ्य का’ (सभी के लिए स्वास्थ्य) के अपने लक्ष्य को आसानी से हासिल कर सकता है.
एक नियोनेटोलॉजिस्ट (neonatologist) के तौर पर डॉ. नीलम क्लेर को समय से पहले जन्मे बच्चों जिनका वजन 1,000 ग्राम से कम होता है उनके जीवित रहने की संभावनाओं में सुधार करने के लिए जाना जाता है. उन्होंने नेशनल नियोनेटोलॉजी फोरम में सेक्रेटरी के तौर पर और बाद में 2009 से 2010 के दरम्यान अध्यक्ष के तौर पर भी काम किया है. भारत सरकार ने नवजात विज्ञान में उनके सराहनीय योगदान के लिए डॉ क्लेर को 2014 में तीसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म भूषण से सम्मानित किया.
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भारत में मातृ मृत्यु दर में आई कमी
पद्म पुरस्कार से सम्मानित डॉ क्लेर ने कहा कि भारत में पिछले कुछ सालों में मातृ मृत्यु दर (maternal mortality rate – MMR) में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है. केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक देश की मातृ मृत्यु दर साल 2015 से 2017 के दरम्यान 130 प्रति लाख जीवित जन्मों की तुलना में साल 2018 से 2020 के दरम्यान घटकर 97 प्रति लाख जीवित जन्म हो गई.
भारत की मातृ मृत्यु दर में सुधार
डॉ. क्लेर ने कहा कि अधिकांश मातृ एवं नवजात शिशुओं की मृत्यु प्रसव यानी डिलीवरी के आस-पास 24 से 48 घंटों के भीतर होती है. भारत में मातृ मृत्यु दर को कम करने के लिए डॉ क्लेर ने कुछ सुझाव दिए:
- हाशिए पर रहने वाले समुदायों और दूर-दराज के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच प्रदान करके संस्थागत प्रसव की संख्या में बढ़ोतरी करनी होगी.
- ग्रामीण समुदायों के बीच संस्थागत प्रसव को लेकर सामाजिक या सांस्कृतिक तौर पर फैली किसी भी गलत अवधारणा को तोड़ना होगा.
- मातृ एवं नवजात की देखभाल के लिए दूरदराज के क्षेत्रों में कुशल मेडिकल वर्कफोर्स को बढ़ाना होगा.
- सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर कुशल बर्थ अटेंडेंट, या तो नर्सों या ANM (सहायक नर्सों और दाइयों) को तैनात करना होगा, जो घर पर गर्भवती महिलाओं और नई माताओं की सहायता कर सकें और उन्हें संस्थागत प्रसव यानी इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी, गर्भावस्था और प्रसव से संबंधित बातों के बारे में शिक्षित कर सकें. डॉ. क्लेर ने श्रीलंका का उदाहरण देते हुए कहा, एक ऐसा देश जो भारत जितना विकसित नहीं है लेकिन इसके बावजूद स्थानीय समुदाय के सदस्यों को प्रसव के बारे में प्रशिक्षण देकर या नई माताओं का मार्गदर्शन करके मातृ मृत्यु दर को काफी पहले ही कम कर चुका है.
- एक पब्लिक हेल्थ कैडर स्थापित करना होगा जिसमें पब्लिक हेल्थ प्रोफेशनल शामिल हों, जो सरकार की स्वास्थ्य देखभाल नीतियों को लागू करने में मदद कर सकें.
- जिन लोगों तक पहुंच नहीं हैं उन तक पहुंचने के लिए हेल्थ केयर में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) का इस्तेमाल करना होगा. दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों में तैनात ANM या नर्सों को एल्गोरिदम प्रोवाइड किया जा सकता है, जो उन्हें बीमारी के लक्षण या पैटर्न जानने में मदद कर सकता है.
नवजात शिशुओं में आंत के स्वास्थ्य का महत्व
डॉ. क्लेर ने नवजात शिशुओं की आंत का स्वस्थ होना कितना महत्वपूर्ण है इस पर भी चर्चा की. उन्होंने तीन कारणों पर प्रकाश डाला जो बच्चे की आंत के स्वास्थ्य को निर्धारित करते हैं, जिनमें योनि प्रसव (vaginal delivery), स्तनपान (breastfeeding) और एंटीबायोटिक दवाओं का जीरो इस्तेमाल यानी एंटीबायोटिक दवाओं का बिल्कुल भी इस्तेमाल न करना शामिल है .
डॉ क्लेर ने कहा कि सिजेरियन डिलीवरी के बजाय योनि से डिलीवरी यानी नॉर्मल डिलीवरी वाले बच्चों की आंत का स्वास्थ्य बेहतर होता है. स्तनपान के फायदों के बारे में बात करते हुए नियोनेटोलॉजिस्ट डॉ क्लेर ने कहा कि यह शिशुओं में एक स्वस्थ माइक्रोबायोम स्थापित करता है. इसके अलावा स्तनपान से आगे जाकर बच्चे के मोटे होने और किसी भी तरह की लाइफ स्टाइल से संबंधित बीमारी विकसित होने की संभावना कम हो जाती है. पद्म भूषण पुरस्कार विजेता ने कहा कि गैर-आवश्यक एंटीबायोटिक दवाओं को इस्तेमाल नहीं करने से भी बच्चे की आंत के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद मिलती है. एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल केवल जरूरत पड़ने पर ही किया जाना चाहिए, सर्दी जैसे वायरल इंफेक्शन के लिए नहीं.
 
                     
                                     
																	
																															 
									 
																	 
									 
																	 
									 
																	 
									 
																	 
									 
																	 
									 
																	 
														 
																											 
														 
																											 
														