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जलवायु परिवर्तन

सर्कुलर इकोनॉमी : पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए विकास पर पुनर्विचार

‘एनडीटीवी-डेटॉल बनेगा स्वस्थ इंडिया’ की टीम ने सर्कुलर इकोनॉमी, भारत को इस ओर बढ़ने में आने वाली चुनौतियों और उनके संभावित समाधानों के बारे में विशेषज्ञों से की बातचीत

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Circular Economy: Re-Thinking Progress For The Environment And Health Benefits
सर्कुलर इकोनॉमी रिसाइक्लिंग से अलग और कहीं व्यापक है, क्योंकि इसमें शुरुआत से ही उत्पादों को कई बार इस्तेमाल करने के लिए बनाया जाता है. इसमें उत्पाद के निर्माण के समय से लेकर उसके उपयोग तक अधिक पारदर्शिता होती है.

नई दिल्ली: एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें, जहां कभी भी कुछ भी फेंका न जाए, ऐसी दुनिया जहां सभी चीजों का उत्पादन और उपयोग कई बार किया जाए, ताकि कम से कम कचरा हो. सर्कुलर इकोनॉमी एक ऐसी ही अर्थव्यवस्था है. सर्कुलर इकोनॉमी की अवधारणा पर्यावरण और इसके प्राकृतिक संसाधनों को बचाते हुए सतत विकास और अच्छे स्वास्थ्य का मार्ग प्रशस्त करती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार दुनिया वर्तमान में रेखीय आर्थिक मॉडल यानी लीनियर इकोनॉमी मॉडल पर काम करती है. इसमें पृथ्वी से संसाधन लेना, उन्हें उत्पादों में बदलना, और अंततः उन्हें कचरे के रूप में फेंकना, आगे पृथ्वी से नई सामग्री लेना और नियमों का पालन करना. टेक-मेक-कंज्यूम-थ्रो का एक ही पैटर्न चलता है.

सर्कुलर इकोनॉमी लोगों के हित में स्थायी उत्पादन, तर्कसंगत खपत और कचरे के कुशल प्रबंधन यानी एफिशिएंट वेस्‍ट मैनेजमेंट की वकालत करती है.

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रीसाइक्लिंग और सर्कुलर इकोनॉमी के बीच अंतर

रीसाइक्लिंग में अपशिष्ट पदार्थों यानी कचरे को नई वस्तुओं में परिवर्तित किया जाता है. यह अपशिष्ट निपटान यानी वेस्ट डिस्पोजल का एक विकल्प है, क्योंकि यह लैंडफिल में जाने वाले कचरे की मात्रा को कम करता है, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करता है और नए संसाधनों के खनन को कम करता है. इस तरह रीसाइक्लिंग दरअसल सर्कुलर इकोनॉमी का ही एक हिस्सा मात्र है, जिसे अंतिम उपाय के रूप में माना जाता है.

सर्कुलर इकोनॉमी रिसाइक्लिंग से अलग और कहीं व्यापक है, क्योंकि इसमें शुरुआत से ही उत्पादों को कई बार इस्तेमाल करने के लिए बनाया जाता है. इसमें उत्पाद के निर्माण के समय से लेकर उसके उपयोग तक अधिक पारदर्शिता होती है.

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) में एनवायर्नमेंटल गवर्नेंस और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के प्रोग्राम मैनेजर सिद्धार्थ घनश्याम सिंह बताते हैं कि रीसाइक्लिंग उद्योग और उपभोक्ताओं दोनों ही की सुविधा के लिए होती है, क्योंकि इसमें उत्पाद को रिसाइकिल किया जाता है. .

‘रीसाइक्लिंग एक स्थानीय गतिविधि है, जो कुछ दिल्ली में रिसाइकिल करने लायक है, हो सकता है कि वह चीज अहमदाबाद में करने योग्य न हो. दूसरी ओर, जब हम सर्कुलर कहते हैं, तो इसमें यह बात भी शामिल होती है कि सामग्री को कैसे निकाला गया, इसके डिजाइन में क्या है, इसका निर्माण कैसे किया गया और इसे कैसे कम से कम कचरा किए बिना इसे कई बार रिन्यू किया जा सकता है. हो सकता है कि उत्पाद का इस्तेमाल उसी प्रयोग के लिए न हो, लेकिन यह लंबे समय तक लूप में रहता है.

उन्होंने कहा कि सर्कुलर इकोनॉमी पूरी वैल्यू चेन की बात करती है. इसलिए भारत जैसा देश, जहां सबसे अधिक आबादी और संसाधन हैं, वहां सर्कुलर इकोनॉमी की अवधारणा को लागू करना और भी जरूरी है.

एनडीटीवी-डेटॉल बनेगा स्वस्थ इंडिया टीम से बात करते हुए पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (पीएचडीसीसीआई) की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन समिति के अध्यक्ष डॉ. जे.पी. गुप्ता ने बताया कि कैसे सर्कुलर इकोनॉमी स्वाभाविक रूप से हमारे अतीत का हिस्सा थी, क्योंकि उस समय प्राकृतिक संसाधनों का दायरा भौगोलिक रूप से सीमित हुआ करता था.

पहले लोग कपड़े, पुरानी धातु से लेकर कबाड़ तक की चीजों का पुनः: उपयोग करते थे. लेकिन, औद्योगिक क्रांति के दौरान जैसे ही देश में औपनिवेशिक सत्ता आई यह आधारभूत चक्र बिखर गया, जिससे हमारा देश संसाधनों को छोड़ने और कचरा पैदा करने वाली वाली लीनियर इकोनॉमी की ओर अग्रसर हुआ. हालांकि अब एक बार फिर से वह समय आ गया है कि हम अपनी पुरानी राह पर वापस लौट चलें.

लीनियर इकोनॉमी का हमारी सेहत पर असर और सर्कुलर इकोनॉमी की ओर बढ़ने के फायदे

सिद्धार्थ सिंह ने मानव स्वास्थ्य पर वर्तमान लीनियर इकोनॉमी के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए बताया कि कैसे सर्कुलर अर्थव्यवस्था को लागू कर इन चीजों से बचा जा जा सकता है.

लीनियर इकोनॉमी के सिस्टम में वैल्यू चेन के अंतिम चरण तक बहुत सारा कचरा उत्पन्न होता है, और इसका बहुत सा हिस्सा उस तबके के इर्द गिर्द एकत्र होता है जो आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं होते. यदि हम शहरी क्षेत्रों को देखें, तो वेस्‍टेज हॉटस्पॉट मुख्य रूप से झुग्गी व झोपड़-पट्टी, वाले ऐसे इलाके होते हैं, जहां घर-घर से कचरा उठाने की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं होती. इस सबके चलते इन इलाकों में रहने वाले लोग अक्सर मौसमी बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. इसके अलावा कचरे के आसपास रहने वाले लोगों को वायु प्रदूषण की समस्या का भी सामना करना पड़ता है. तकरीबन हर समय उन्हें इसे झेलना पड़ता है, जिसके चलते उन्हें सांस की गंभीर बीमारियां भी हो जाती हैं.

उन्होंने कहा कि ये सारी चीजें कचरा प्रबंधन पर निर्भर करती हैं. सिद्धार्थ सिंह ने कहा कि वर्तमान में कचरे के निपटान के लिए मुख्य रूप से कूड़े को जलाने का तरीका अपनाया जाता है. अपशिष्ट प्रबंधन के तहत कचरे से छुटकारा पाने के लिए ज्यादातर उसे जलाने का ही तरीका अपनाया जाता है, पर कूड़े को जलाना भी मानव स्वास्थ्य के लिए डंप साइट्स बनाने की ही तरह खतरनाक है. क्योंकि इसमें कचरा जलकर राख बन जाता है. साथ ही कूड़े को जलाने से डाइऑक्सिन और फ्यूरॉन जैसे हानिकारक रासायनिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं.

ये दोनों ही रसायन प्लास्टिक को जलाते समय उत्पन्न होते हैं और उनके साथ भारी मात्रा में हैलोजेनेटेड फंक्शनल ग्रुप्स भी जुड़े होते हैं. ज्यादा समय तक इनके संपर्क में रहने से सांस की गंभीर बीमारियां हो जाती हैं. यहां तक कि इससे कैंसर भी हो सकता है. इनसे कार्सिनोजेनिक इफेक्ट होता है. इस तरह कचरे को जलाना हमारी सेहत के लिए कई तरह की समस्याएं खड़ी कर रहा है.

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सिंह ने कहा कि यदि भारत खुद को एक सर्कुलर अर्थव्यवस्था में बदल लेता है, तो हमें भारी मात्रा में पैदा हो रहे इस कचरे के निपटान को लेकर परेशान नहीं होना पड़ेगा, क्योंकि उत्पादों को मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाए बिना कई बार इस्तेमाल करने के लिए बनाया जाएगा, जिससे कम से कम कचरा पैदा होगा.

उन्होंने कहा कि सर्कुलर इकोनॉमी की ओर बढ़ने के लिए एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू पर ध्यान दिया जाना चाहिए, वह है पारदर्शिता.

यदि आप अपने दैनिक जीवन में किए जा रहे प्लास्टिक के उपयोग पर नज़र डालें, तो पाएंगे कि जैसे ही हम सोने कर उठते हैं, हमारे इर्द गिर्द ज्यादातर प्लास्टिक से बनी चीजें ही दिखाई देती हैं. संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम प्लास्टिक साइंस के अनुसार प्लास्टिक उद्योग प्लास्टिक के निर्माण के दौरान इसे आकार, रूप, रंग और गुण देने के लिए तकरीबन 10,000 से अधिक रसायनों का उपयोग करता है. इसमें से 25 प्रतिशत रसायनों का मानव स्वास्थ्य पर गंभीर असर होता है. ये पदार्थ शरीर की परिसंचरण, प्रजनन, न्यूरोलॉजिकल सिस्टम जैसी सभी प्रणालियों को प्रभावित करते हैं. बाकी 75 फीसदी में हमें नहीं पता होता है कि किस तरह के केमिकल्स का इस्तेमाल होता है क्‍योंकि वहां पारदर्शिता की कमी है. ऐसे में आज हम नहीं जानते कि हम क्या खा रहे हैं, उसके हम पर कितना हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है और यह कितना गंभीर है.

सिद्धार्थ सिंह ने कहा कि सर्कुलर मॉडल या अर्थव्यवस्था में इन उत्पादों को बनाने वाली कंपनियां पारदर्शी बनने, जवाबदेही लेने और जिम्मेदारी लेने के लिए बाध्य होंगी.

उन्हें इन बातों को सुनिश्चित करना होगा- उत्पाद के प्रकार, उसकी डिजाइनिंग, उत्पाद की पैकेजिंग से लेकर इस्तेमाल के बाद उसका क्या होगा और उसकी रीसाइक्लिंग कैसे की जाएगी तक की बातों का ख्‍याल रखना होगा. साथ ही क्‍या कोई इसकी रिसाइकिलिंग को तैयार होगा और रिसाइकिल उत्‍पाद के लिए क्या कोई बाजार होगा जैसी बातों पर भी ध्‍यान दिया जाएगा.

इसके अलावा इसमें उत्‍पादों को इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ता को यह भी पता होगा कि प्रोडक्‍ट में इस्तेमाल किए जा रहे रसायनों का लॉन्ग टर्म में उसकी सेहत पर कोई बुरा प्रभाव तो नहीं पड़ेगा.

सर्कुलर इकोनॉमी और पर्यावरण

मनुष्य और पर्यावरण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. सर्कुलर इकोनॉमी कच्चे माल और ऊर्जा की खपत को कम करते हुए अक्षय या रीसाइक्लिंग योग्य संसाधनों की हिस्सेदारी बढ़ाकर टेक-मेक-कंज्यूम-डिस्पोज की मौजूदा व्यवस्था को त्यागने और पर्यावरणीय सीमाओं का ख्याल रखने की कोशिश करती है.

लीनियर मॉडल ने वर्तमान में पर्यावरण में कहर कैसे बरपाया है, इसका विवरण देते हुए श्री सिंह ने कहा,

हम अपने दैनिक जीवन में जिन उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं, वह आमतौर पर केवल एक बार इस्‍तेमाल वाले प्लास्टिक पैकेज में आते हैं. ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारा अधिकांश प्लास्टिक खनन, क्रैकिंग आदि गतिविधियों से आता है. इसलिए, प्लास्टिक से कुछ भी बनाना एक काफी ऊर्जा की खपत वाली प्रक्रिया होती है. इस तरह उत्पाद बनाने की प्रक्रिया और उत्पाद दोनों ही पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं.

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सर्कुलर अर्थव्यवस्था की राह में बाधाएं

सर्कुलर अपैरल इनोवेशन फैक्ट्री (CAIF) के लिए कॉरपोरेट स्ट्रेटजी एंड एंटरप्राइज इंगेजमेंट के लिए सर्कुलर इकोनॉमी एंड क्लाइमेट चेंज पर इम्पैक्ट एडवाइजरी और लीड सिद्धार्थ लुल्ला ने कहा कि सर्कुलर इकॉनमी की ओर बढ़ने के लिए भारत को कई चुनौतियों का सामना करना होगा.

सबसे बड़ी चुनौती हर तरह के कचरे की रीसाइक्लिंग करने की व्यवस्था तैयार करना है, क्‍योंकि अभी भारत के पास पर्याप्त रिसाइक्लिंग इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है.

दूसरी चुनौती रीसाइक्लिंग के लिए अच्छी तकनीक की भी कमी है. इसे समझाते हुए वह कहते हैं,

टेक्‍नोलॉजी से मेरा मतलब यह है कि आज इतनी तरह के कचरे पैदा हो रहे हैं कि उनमें से सभी की रिसाइकिलिंग नहीं की जा सकती. उदाहरण के लिए दैनिक उपभोग वाली चीजें यानी फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी) कंपनियों द्वारा उत्पादित पीईटी (पेट) बोतलों जैसी एक बार इस्‍तेमाल होने वाली चीजों की रिसाइकिलिंग के लिए तो हमारे पास बुनियादी ढांचा या तकनीक उपलब्ध है, जिसे हम मैकेनिकल रीसाइक्लिंग कहते हैं. लेकिन जब बात मल्टी लेयर्ड पैकेजिंग, टेक्सटाइल्स यानी जो कपड़े हम और आप पहनते हैं, की बात आती है, तो आप उन्हें एक हद तक ही रीसायकल कर सकते हैं. ब्‍लेंडेड टेक्‍सटाइल यानी मिश्रित वस्त्र, जो दो या तीन कपड़ों के साथ मिश्रित होते हैं, उसकी रिसाइकिलिंग के लिए रासायनिक समाधान अभी तक उपलब्ध नहीं हैं. इसलिए, इस मामले में टेक्‍नोलॉजी फिलहाल वरदान के बजाय एक बाधा ही बनी हुई है.

तीसरी चुनौती सिद्धार्थ सिंह ने यूनिट इकोनॉमिक्‍स के अभाव को बताया (प्रति-इकाई के आधार पर किसी व्यवसाय का डायरेक्‍ट रिवेन्‍यू और लागत, जहां यूनिट कोई भी क्वांटेटिव आइटम हो सकता है जो व्यवसाय को आय प्रदान करता हो)

आपके पास बहुत सारे अलग-अलग सॉल्‍यूशन हो सकते हैं, लेकिन सवाल यह है कि यूनिट इकोनॉक्‍स क्या है? यदि किसी समाधान को बड़े पैमाने पर अपनाने की आवश्यकता है, तो यूनिट इकोनॉमिक्स के लिहाज से इसके लिए एक उचित आधार होना चाहिए, क्योंकि आप किसी को एक विशिष्ट सॉल्‍यूशन अपनाने के लिए कहते हैं, तो निर्माता को जब तक यह कॉस्ट इफेक्टिव नहीं लगती, तब तक वह उसमें आगे बढ़ने वाला नहीं है. इसलिए, हमें विभिन्न सॉल्यूशंस का परीक्षण करते वक्त यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि वह कॉस्ट इफेक्टिव और कारोबारी संभावनाओं वाला हो. इसके लिए पहले छोटे पैमाने पर इसका पायलट प्रोजेक्ट चलाकर देख लेना चाहिए, जिसमें तीन पहलुओं को देखना जरूरी है. पहला यह कि वह सॉल्यूशन पर्यावरण के लिहाज से कैसा है.दूसरा उसका सामाजिक प्रभाव यानी उससे रोजगार के कितने अवसर पैदा होते हैं और तीसरी आर्थिक रूप से वह कितना व्यावहारिक है यानी इकोनॉमिक वायबिलिटी.

उन्होंने जो चौथी चुनौती बताई वह है उपभोक्ता जागरूकता यानी कंज्यूमर अवेयरनेस. भारत में सर्कुलर इकोनॉमी को अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए उसके अनुरूप मानसिकता यानी कंज्‍यूमर माइंडसेट तैयार करना भी जरूरी है.

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