कोई पीछे नहीं रहेगा

अनुच्छेद 377: अपराध की श्रेणी से बाहर करने के पांच साल बाद भी LGBTQIA+ के लिए चुनौतियां बरकरार

पांच साल पहले अनुच्छेद 377 के गैर-अपराधीकरण के बाद भी LGBTQIA+ समुदाय को जिन सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ रहा है, उस बारे में ‘एनडीटीवी-डेटॉल बनेगा स्वस्थ इंडिया’ ने कई कार्यकर्ताओं से की बातचीत

Read In English
अनुच्छेद 377: अपराध की श्रेणी से बाहर करने के पांच साल बाद भी LGBTQIA+ के लिए चुनौतियां बरकरार
अशोक रॉ कवी, भारत के पहले गे राइट एक्टिविस्ट, ने कहा कि आर्टिकल के हट जाने से लोगो को जीने का अधिकार और उनके साथ रहने की अनुमति मिली है, लेकिन अभी भी वह लोग कई सारी अधिकारों और सुविधाओं से वंचित हैं

नई दिल्ली: 6 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने देश में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाले कठोर अनुच्छेद 377 को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) से हटा दिया था. 493 पन्नों के इस अभूतपूर्व फैसले में पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि इतिहास को इस समुदाय से माफी मांगनी चाहिए. पीठ ने आगे कहा, “हमें पूर्वाग्रहों को अलविदा कहना होगा और सभी नागरिकों को सशक्त बनाना होगा. व्यक्तिगत पसंद का सम्मान स्वतंत्रता का सार है. संविधान के तहत समुदाय को समान अधिकार प्राप्त हैं.”

LGBTQIA+ को करना पड़ता है सामाजिक पूर्वाग्रहों का सामना

भारत के पहले समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ता अशोक रो कवि ने कहा कि अनुच्छेद 377 को खत्म करने से LGBTQIA+ समुदाय के लोगों को एक साथ रहने और साथ रहने का अधिकार मिल गया है, लेकिन अब भी ये उन बुनियादी अधिकारों और लाभों से वंचित हैं, जो विषमलैंगिक जोड़ों के लिए उपलब्ध हैं, जैसे बीमा पॉलिसियों में नामांकित करना (नॉमिनी बनाना), संयुक्त खाता (जॉइंट अकाउंट) खोलने या बच्चा गोद लेने के लिए उन साझेदार बनाया जाना. समुदाय के सभी सदस्यों में से ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अधिक बार भेदभाव का सामना करना पड़ता है, चाहे वह सामाजिक या लैंगिक पूर्वाग्रह हो या स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की बात हो.

इसे भी पढ़े: ट्रांसजेंडर्स के लिए एक डॉक्टर की मार्गदर्शिका: जानिए क्या है जेंडर अफर्मेशन, इसकी लागत, इलाज और कठिनाईयों के बारे में

LGBTQIA+ को करना पड़ता है लिंग संबंधी पूर्वाग्रहों का सामना

यूटीएच-यूनाइटेड फॉर ट्रांसजेंडर हेल्थ की संस्थापक डॉ. साक्षी ममगैन ने कहा कि LGBTQIA+ को भारतीय समाज में पहले की तुलना में अधिक स्वीकार्यता तो मिली है, लेकिन आम जिंदगी में परिवार, घर और स्कूल में उनकी लैंगिक स्वीकृति (सक्‍सुअल एक्‍सेप्‍टेंस) और उनकी लिंग व यौन प्राथमिकताओं को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की क्षमता अभी भी एक संघर्ष बनी हुई है. डॉ ममगैन ने कहा,

अलग होने के कारण उन्हें जिस कलंक, पूर्वाग्रह और भेदभाव का सामना करना पड़ता है, वह उन्हें कई मानसिक समस्याओं की ओर धकेल देता है.

एक ट्रांसवुमन और दिल्ली स्थित सामाजिक कार्यकर्ता रुद्राणी छेत्री, जो भारत में LBTQIA+ अधिकारों के लिए बहुत काम कर रही हैं, समुदाय के सामने आने वाली दो प्रमुख समस्याएं बताती हैं, जो कि लैंगिक पूर्वाग्रह और स्वास्थ्य सेवाओं में आने वाली परेशानियां हैं.

लैंगिक पूर्वाग्रहों के बारे में बात करते हुए छेत्री ने कहा,

जब कोई बच्चा पैदा होता है, तो लोग यह जानना चाहते हैं कि वह लड़का है या लड़की. कोई भी यह नहीं पूछना चाहता कि बच्चा कैसा है या उसका स्वास्थ्य कैसा है.

इसे भी पढ़े: राजस्थान में पहली बार ट्रांसजेंडर के लिए जारी किया गया जन्म प्रमाण पत्र

स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव

स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में खामियों के बारे में बात करते हुए डॉ ममगैन ने कहा,

पहला खतरा यह है कि ट्रांसजेंडर स्वास्थ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जाता है. भारत में मेडिकल पाठ्यक्रम से भी यह गायब है. इस सबको लेकर जागरूकता की कमी साफ तौर पर दिखाई देती है और यह कलंक इतनी गहराई तक जमा हो चुका है कि हर जगह भेदभाव होता है और छोटे क्लीनिकों से लेकर अस्पतालों तक यह भेदभाव किसी न किसी तरह से यह सब अपनी जगह बना लेता है.

ट्रांसजेंडर अधिकार कार्यकर्ता अभिना अहेर ने कहा कि गलत लिंग भेद और हेल्‍थ केयर तक पहुंच न होना भी भेदभावपूर्ण व्यवहार के उदाहरण हैं. इसका कारण LGBTQIA+ समुदाय की स्वास्थ्य आवश्यकताओं के बारे में संवेदनशीलता और जागरूकता की कमी है.

अस्पतालों में इस समुदाय के बारे में कोई संवेदनशीलता नहीं दिखती. हमने दुर्व्यवहार से लेकर बिल्कुल भी इलाज न मिलने जैसी चीजें देखी हैं.

अहेर ने कहा कि ट्रांसजेंडर लोगों के लिए सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए भी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच काफी कष्टदायक होती है, क्योंकि वे पारंपरिक लिंग भूमिकाओं (जेंडर रोल) में फिट नहीं बैठते हैं. उन्होंने स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में बुनियादी ढांचे की कमियों पर भी प्रकाश डाला. उदाहरण के लिए, अस्पतालों और क्लीनिकों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए अलग वार्ड न होना.

इसके साथ ही डॉ. साक्षी ममगैन ने कहा कि भारत में ट्रांसजेंडर-संबंधित स्वास्थ्य सेवाओं में विशेषज्ञता वाले डॉक्टरों की कमी भी एक बड़ी समस्या है। उन्होंने कहा,

ट्रांसजेंडरों के इलाज के लिए स्‍टैंडर्ड गाइडलाइन और प्रोटोकॉल की कमी है. बहुत से डॉक्टर लिंग पुनर्निर्धारण (सेक्‍स रीअसाइनमेंट) या लिंग पुनर्निर्धारण सर्जरी करने और उपचार प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं. इन सभी कमियों के कारण देखभाल में कमियां रह जाती हैं और समुदाय के लिए उचित सपोर्ट नहीं मिल पाता है.

इसे भी पढ़े: उमेश के अंदर उमा की खोज, एक ट्रांसजेंडर को पहचान की तलाश

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए सर्जरी के लिए पर्याप्‍त सुविधाएं न होने की बात करते हुए बेंगलुरु की एक ट्रांसजेंडर और LGBTQIA+ समुदाय के लिए एक जीवा नाम की संस्था की संस्थापक उमा ने कहा कि भारत में LGBTQIA+ की सर्जरी और उपचार के बारे में जानकारी बहुत सीमित है. उन्होंने आगे कहा,

हममें से बहुत से लोग उचित सर्जरी कराना चाहते हैं, लेकिन यह संभव नहीं हो पाती. आज भी हमारी सर्जरी सभी अस्पतालों में नहीं होती है. यह केवल कुछ चुनिंदा जगहों पर ही उपलब्ध है और ऐसी सर्जरी करने वाले अस्पतालों, डॉक्टर और कर्मचारियों की संख्या बहुत ही कम है.

मुसीबत यहीं खत्म नहीं होती. उपचार और सर्जरी काफी महंगी भी होती है. उमा ने अपनी कहानी बताते हुए कहा,

मैंने 42 साल की उम्र में अपनी लोअर सर्जरी करवाई, जिसमें मुझे 2.5 लाख का खर्च आया. यह सिर्फ सर्जरी के लिए था, इसमें नियमित काउंसलिंग और मेडिकल चेकअप जैसी चीजें शामिल नहीं हैं.

किफायती स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा उपलब्ध न होने का जिक्र करते हुए, द ललित, दिल्ली में सीनियर डायवर्सिटी, इक्विटी और इंक्लूजन (DE&I) एसोसिएट, मोहुल शर्मा ने कहा,

एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के लिए सर्जरी करवाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि यह महंगा है और हर कोई इसका खर्च नहीं उठा सकता. हम या तो जिंदगी के नियमित खर्च चला सकते हैं या सर्जरी पर खर्च कर सकते हैं. इसके अलावा भी अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के लिए चेकअप कराने से लेकर इलाज तक में हमें हर स्तर के भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

अस्पताल के अपने अनुभव के बारे में बताते हुए शर्मा ने कहा,

जब मैं अपने माइग्रेन की जांच के लिए गई, तो डॉक्टर ने मेरी बीमारी का इलाज करने के बजाय मुझसे मेरे लिंग के बारे में सवाल पूछना शुरू कर दिया. सबसे बुरी बात यह थी कि जब मैंने उनसे बात की, तो मैं यह जानकर हैरान रह गई कि एक भी डॉक्टर को लिंग डिस्फोरिया के बारे में जानकारी ही नहीं थी. दो घंटे की बातचीत के बाद भी डॉक्टर समझ नहीं पाए कि मेरी जांच कैसे करें या इलाज कैसे करें. ज्यादातर मामलों में, डॉक्टर ट्रांस लोगों से बचते हैं.

शर्मा ने कहा कि हेल्‍थ केयर हर इंसान का बुनियादी अधिकार है, चाहे उनका लिंग और सेक्सुएलिटी कुछ भी हो.

इसे भी पढ़े: प्राइड मंथ स्‍पेशल : NALSA के फैसले से लेकर ट्रांसजेंडर एक्‍ट – 2019 तक, ट्रांसजेंडर की सुरक्षा में भारत की स्थिति

समावेशी समाज बनाने की ओर कदम उठाना जरूरी

कार्यकर्ताओं ने कुछ ऐसे कदमों का जिक्र किया, जिनकी भारतीय समाज को LGBTQIA+ समुदाय के प्रति अधिक समावेशी बनने और उनकी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए सख्त जरूरत है:

  • समुदाय से जुड़े कलंक (स्टिग्मा) को दूर करें.
  • स्कूलों में लिंग-समावेशी (जेंडर इंक्लूसिव) माहौल को बढ़ावा दिया जाए, जिसमें छात्र लिंग और कामुकता (जेंडर व सेक्सुएलिटी) के बारे में सीखें. समावेशी भाषा का उपयोग शिक्षा में सहायक हो सकता है.
  • युवा पीढ़ी को संवेदनशील बनाएं और उन्हें उन आवश्यकताओं और देखभाल के बारे में जागरूक करें जिनकी LGBTQIA+ समुदाय को आवश्यकता है.
  • चिकित्सा और स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में समुदाय में जागरूकता बढ़ाई जाए.
  • समुदाय की विविधता और उनकी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में चिकित्सा और पैरामेडिकल स्टाफ के लिए कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए.
  • आयुष्मान भारत टीजी प्लस की तरह ही सरकार को LGBTQIA+ समुदाय के लिए और अधिक सरकारी नीतियां और कार्यक्रम लागू करने चाहिए.

इसे भी पढ़े: समलैंगिक जोड़े की प्रेम कहानी में LGBTQIA+ समुदाय की अग्नि परीक्षा की दास्तां

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *