नई दिल्ली: एनजीओ ईकोएक्सिस्ट फाउंडेशन की संस्थापक और निदेशक मनीषा सेठ ने तीन साल पहले देश के सबसे बड़े त्योहारों में से एक, गणेश चतुर्थी को इको फ्रेंडली बनाने के लिए ‘पुनर्वर्तन’ अभियान शुरू किया था. इसका उद्देश्य लोगों को प्राकृतिक मिट्टी जैसी पारंपरिक सामग्री (जिसे शादु मिट्टी भी कहा जाता है) से बनी गणेश मूर्तियां स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना था.
गणेश चतुर्थी का पर्यावरण पर असर
गणेश चतुर्थी का पवित्र त्योहार हर साल सितंबर में बड़ी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है, जिसमें हजारों भक्त मंदिरों और ‘गणेशोत्सव पंडालों’ में पूजा करने के लिए आते हैं. इस दस दिवसीय उत्सव का समापन गणपति बप्पा का जल विसर्जन करने के साथ होता है. भक्त अपने घरों, संस्थाओं और काम की जगह पर गणपति की मूर्ति को स्थापित करते हैं. हर साल मूर्तियों की विदाई की इस परंपरा का हमारे पर्यावरण पर गंभीर असर पड़ रहा है. मूर्तियों को पानी में प्रवाहित करने से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है, क्योंकि ज्यादातर मूर्तियां प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) जैसी गैर-बायोडिग्रेडेबल सामग्री से बनी होती हैं और उनकी सजावट के लिए प्लास्टिक और रासायनिक पेंट जैसी अन्य खतरनाक सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में जल में विसर्जित करने पर ये मूर्तियां उन जलस्रोतों को प्रदूषित कर देती हैं.
सेठ की ईकोएक्सिस्ट फाउंडेशन 2007 से पर्यावरण-अनुकूल गणेश मूर्तियों के उपयोग को बढ़ावा देने का अभियान चला रही है. शुरू में उनका फोकस लोगों को प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) जैसी हानिकारक सामग्रियों से बनी मूर्तियां खरीदने के बजाय मिट्टी जैसी प्राकृतिक सामग्री से बनी मूर्तियां लेने के लिए प्रेरित करने पर था. हालांकि आजकल ज्यादातर कारीगर मूर्तियां बनाने में पीओपी का ही इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि यह मिट्टी की तुलना में सस्ता और काम करने में सुविधाजनक होता है, लेकिन 2020 में सेंटर फॉर पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (सीपीसीबी) ने पीओपी से बनी मूर्तियों के विसर्जन पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसके बाद मिट्टी की मूर्तियां बनाने और इस्तेमाल करने पर ध्यान दिया जाने लगा.
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सेठ ने कहा कि पीओपी की मूर्तियों पर रोक लगाए जाने के बाद अब मूर्तियां बनाने में प्राकृतिक मिट्टी का अत्यधिक उपयोग होने लगा है, पर ध्यान देने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मिट्टी इको फ्रेंडली तो पर यह गैर-नवीकरणीय (नॉन रिन्यूएबल) है. उन्होंने कहा,
हमने देखा कि सैकड़ों टन मिट्टी का उपयोग किया जा रहा था। मिट्टी एक गैर-नवीकरणीय सामग्री है, जिसका आमतौर पर गुजरात और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में खनन कर मूर्तियां बनाने के लिए महाराष्ट्र और भारत के अन्य हिस्सों में लाया जाता है. यह पूरी प्रक्रिया खनन, मिट्टी की निकासी और परिवहन, खदानों में काम करने वाले लोगों के लिए स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा करती है. इसके अलावा इससे उन क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाता है, जहां से मिट्टी का खनन किया जाता है और जिस पानी में मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है वह भी प्रदूषित होता है.
सेठ लोगों को यह एहसास कराना चाहती थीं कि मिट्टी एक खत्म होने वाला संसाधन है, लेकिन यह एक ऐसी सामग्री भी है जिसे आसानी से रीसायकल किया जा सकता है. इसी मकसद से उन्होंने जून 2020 में ‘पुनर्वर्तन’ अभियान की शुरुआत की.
यह जागरूकता अभियान छोटे पैमाने पर शुरू किया गया, जिसमें ईकोक्सिस्ट (eCoexist) की टीम ने कुछ क्षतिग्रस्त मूर्तियों को यह देखेने के लिए इकट्ठा किया कि क्या इन मूर्तियों की मिट्टी को रीसायकल किया जा सकता है. उनका यह कदम काफी कारगर साबित हुआ. मूर्तियां बनाने वाले कारीगर भी इसे लेकर काफी सहज और उत्साहित थे. सेठ ने आगे कहा,
इसके बाद हमने इस विचार को विस्तार दिया. हमने लोगों से घर पर ही विसर्जन की प्रक्रिया करके गणेश मूर्तियों को रिसाइक्लिंग के लिए दान करने का आग्रह किया.
टीम ने छोटे स्तर पर दान अभियान चला कर करीब 30 किलोग्राम मिट्टी एकत्र की, जिससे कुछ नई मूर्तियां तैयार कर बाजार में बिक्री के लिए पहुंचाया गया. इसके बाद 2021 तक इस अभियान को न केवल लोगों से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने लगी, बल्कि पूर्णम इकोविजन फाउंडेशन और स्वच्छ सहकारी संस्थ सहित पुणे के 22 एनजीओ का भी समर्थन मिला.
पूर्णम इकोविजन के संस्थापक डॉ. राजेश मनेरीकर ने कहा,
अकेले पुणे में घरेलू गणपति उत्सवों में दो लाख से अधिक गणेश मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. तो, जरा कल्पना कीजिए कि हर साल कितनी मिट्टी पानी में डूब जाती है? पुनर्वर्तन अभियान मूर्तियों का पुन: उपयोग करने और इसे बार-बार उपयोग में रखने की बात करता है. यह रीसायकल इकोनॉमी की ओर एक कदम है. इससे बेहतर भला और क्या हो सकता है.
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पुणे में लगभग 100 मूर्ति संग्रह केंद्र हैं. हर संग्रह केंद्र में एक समन्वयक होता है. यह सभी केंद्र गणेश चतुर्थी त्योहार के दौरान और बाद में दो दिनों के लिए खुले रखे जाते हैं. इस दौरान यहां एकत्र की गई मूर्तियों को चुनिंदा कारीगरों को सौंप दिया जाता है.
आज यह अभियान न सिर्फ नासिक, ठाणे, पिंपरी चिंचवड़ समेत महाराष्ट्र के नौ शहरों तक फैल चुका है, बल्कि यह गुजरात के अहमदाबाद और सूरत, कर्नाटक के बेंगलुरु और तेलंगाना के हैदराबाद तक भी पहुंच गया है.
इस अभियान में फिलहाल विभिन्न शहरों और राज्यों में लगभग 500 स्वयंसेवक काम कर रहे हैं. मुनीरा फलटनवाला जो पहले एक वॉलेंटियर के रूप में काम कर चुकी हैं और अब कोर टीम का हिस्सा हैं. अभियान के महत्व के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा,
यह अभियान एक रीसायकल इकोनॉमी की ओर बढ़ने के लिए लोगों को जागरूक कर रहा है. इसमें चीजों का दोबारा इस्तेमाल करने और इससे पैसा कमाने की बात समझाई जा रही है. साथ ही इससे कारीगरों की आर्थिक स्थिति मजबूत भी सुधर रही है. अभियान के तहत चुने गए प्रत्येक कारीगर को पांच से सात टन मिट्टी दी जाती है, जिससे लगभग 1,500-2,000 मूर्तियां बनाई जा सकती हैं. इससे इन कारीगरों को नई मिट्टी खरीदने में कोई पैसे खर्च नहीं करने पड़ते और वह दी गई मिट्टी से मूर्तियां बना उन्हें बेच कर आमदनी प्राप्त कर रहे हैं. इस तरह यह अभियान कारीगरों को रिसाइक्लिंग की तकनीक को अपना कर इससे आय अर्जित करने के लिए भी प्रोत्साहित कर रहा है. सामाजिक रूप से यह अभियान पर्यावरण के प्रति जागरूक नागरिकों को वॉलेंटियर के रूप में एक साथ ला रहा है.
पुणे नगर निगम (पीएमसी) भी इस अभियान का समर्थन करने के लिए आगे आया और उसने शहर भर में कई मिट्टी संग्रह केंद्र स्थापित किए. अभियान 2020 में केवल 30 किलोग्राम संग्रह के साथ एक छोटे पायलट प्रयोग के रूप में शुरू हुआ और 2021 में एकत्र की गई मिट्टी को मूर्तियों में बदल दिया गया, ताकि यह देखा जा सके कि बाजार रीसायकल मिट्टी से बनी इन मूर्तियों को स्वीकार करेगा या नहीं.
मनीषा शेठ ने बताया कि 2022 तक पुणे में 22 संगठनों की मदद से विसर्जित मूर्तियों का संग्रह 23,000 किलोग्राम तक पहुंच गया. इस तरह 23 टन मिट्टी को जल स्रोतों में बहाए जाने से रोका गया. इस वर्ष अभियान का लक्ष्य 50,000-1,00,000 किलोग्राम मिट्टी इकट्ठा करके कारीगरों को सौंपने का है.
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