नई दिल्ली: जनसंख्या के हिसाब से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश भारत, विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से समग्र स्वास्थ्य और कल्याण की दिशा में काम कर रहा है और यह विभिन्न हेल्थ इंडिकेटर्स के तहत सुधार के साथ स्पष्ट है. भारत सरकार के रजिस्टरार जनरल और सेंसस कमिश्नर के ऑफिस द्वारा प्रकाशित सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) रिपोर्ट के अनुसार, जन्म के समय औसत जीवन प्रत्याशा 1970-75 के दौरान 49.7 से बढ़कर वर्ष 2015-19 के दौरान 69.7 हो गई है. इस अवधि के दौरान 20 वर्ष की वृद्धि देखी गई. पोलियो उन्मूलन में भारत की सफलता किसी से छिपी नहीं है. इसी तरह, भारत ने 1979 में खुद को चेचक से भी मुक्त घोषित किया.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के संविधान में कहा गया है, “स्वास्थ्य पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की स्थिति है, न कि केवल बीमारी या दुर्बलता का न होना.” भारत के लिए, यह न केवल स्वास्थ्य के मामलों में दखल करके बीमारियों के उन्मूलन के बारे में है, बल्कि पोषण जैसे अन्य मानकों को पर भी नजर रख रहा है जो स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं. आइए भारत की आजादी के पिछले 75 वर्षों में स्वास्थ्य में कुछ सबसे बड़े गेम चेंजर पर एक नजर डालते हैं.
इसे भी पढ़ें: भारत में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की रीढ़ है हेल्थकेयर की प्राइमरी यूनिट
यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम
भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 1978 में भारत में ‘इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम का विस्तार’ (EPI) करते हुए टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किया. 1985 में, कार्यक्रम को ‘यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम’ (यूआईपी) के रूप में संशोधित किया गया था, क्योंकि इसकी पहुंच शहरी क्षेत्रों से परे फैली हुई थी. यूआईपी सालाना 2.67 करोड़ नवजात शिशुओं और 2.9 करोड़ गर्भवती महिलाओं को लक्षित करने वाले सबसे बड़े पब्लिक हेल्थ प्रोग्राम में से एक है. यह सबसे अधिक लागत प्रभावी सार्वजनिक स्वास्थ्य में दखल में से एक है और यह टीके की रोकथाम योग्य अंडर -5 मृत्यु दर में कमी के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है.
यूआईपी के तहत, 12 टीके से बचाव योग्य बीमारियों के खिलाफ फ्री टीकाकरण किया जाता है:
- राष्ट्रीय स्तर पर 9 बीमारियों के खिलाफ – डिप्थीरिया, पर्टुसिस, टेटनस, पोलियो, खसरा, रूबेला, बचपन के तपेदिक, हेपेटाइटिस बी और मेनिनजाइटिस और निमोनिया का एक गंभीर रूप है.
- सब-नेशनल लेवल पर 3 बीमारियों के खिलाफ – रोटावायरस डायरिया, न्यूमोकोकल न्यूमोनिया और जापानी इंसेफेलाइटिस; जिनमें से रोटावायरस वैक्सीन और न्यूमोकोकल कॉन्जुगेट वैक्सीन विस्तार की प्रक्रिया में हैं, जबकि जेई वैक्सीन केवल स्थानिक जिलों में प्रदान की जाती है.
पल्स पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम
डब्ल्यूएचओ कहता है, 1995 में, भारत ने वैश्विक पोलियो उन्मूलन (1988) के लिए विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा पारित एक प्रस्ताव के लिए प्रतिबद्ध किया और पल्स पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किया. दो दशकों के भीतर, भारत को 27 मार्च, 2014 को विश्व स्वास्थ्य संगठन से ‘पोलियो-मुक्त प्रमाणीकरण’ प्राप्त हुआ, जिसमें आखिरी पोलियो का मामला 13 जनवरी, 2011 को पश्चिम बंगाल के हावड़ा में दर्ज किया गया था.
देश के दूर-दराज के हिस्सों में रहने वाले सबसे हाशिए के और कमजोर समूहों सहित सभी के लिए टीकों की समान पहुंच सुनिश्चित करना ने उन्मूलन को संभव बनाया. हर लेवल पर एक उच्च प्रतिबद्धता ने नीति निर्माताओं, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, फ्रंट लाइन वर्कर, पार्टनर और कम्युनिटी वॉलिंटियर ने हर बच्चे चाहे वे घर, स्कूल में हो, को जीवन रक्षक पोलियो की खुराक देने के लिए काम किया.
देश को पोलियो मुक्त रखने के प्रयास जारी हैं. भारत हर साल पोलियो के लिए एक नेशनल इम्यूनाइजेशन डे और दो सब नेशनल इम्यूनाइजेशन डे (एसएनआईडी) आयोजित करता है ताकि पोलियो वायरस के खिलाफ पॉपुलेशन इम्युनिटी और पोलियो मुक्त स्थिति को बनाए रखा जा सके.
इसे भी पढ़ें: जानिए कितनी हेल्दी हैं भारत की महिलाएं
स्कूलों में मिड डे मील के लिए नेशनल प्रोग्राम या पीएम पोषण स्कीम
मिड डे मील स्कीम के रूप में लोकप्रिय, इस कार्यक्रम की शुरुआत शिक्षा मंत्रालय द्वारा 1995 में की गई थी. यह योजना प्राइमरी स्कूल (कक्षा I से V) में छात्रों को रोज भोजन देने के लिए देश भर के 2,408 ब्लॉकों में शुरू की गई थी. बाद में उसी वर्ष 28 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 2001 में सभी सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में कवरेज का विस्तार करके इसे सार्वभौमिक बना दिया गया. 2007 में उपर प्राइमरी (कक्षा VI से VIII) के स्टूडेंट को कवर करने के लिए प्लान का दायरा आगे बढ़ाया गया था.
इस प्रोग्राम को बच्चों के फ्री और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 का समर्थन मिला, जिसमें हर स्कूल में एक किचन का प्रावधान अनिवार्य था, जहां मीड डी मील पकाया जाएगा. बाद में, इसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 द्वारा और मजबूत किया गया, जिसने चौदह वर्ष की आयु तक के हर स्कूली बच्चे को सभी संचालित या सहायता प्राप्त स्कूलों में मुफ्त, पका हुआ, गर्म मीड डे मिल का कानूनी अधिकार दिया.
सितंबर 2021 में, 2021-22 से 2025-26 तक सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में गर्म पका हुआ भोजन देने के लिए इस प्लान का नाम बदलकर पीएम पोषण (पोषण शक्ति निर्माण) योजना कर दिया गया. इस योजना में देश भर के 11.20 लाख स्कूलों में पढ़ने वाले लगभग 11.80 करोड़ बच्चे शामिल हैं. 2020-21 के दौरान, भारत सरकार ने इस योजना में 24,400 करोड़ रुपये से अधिक का इंवेस्ट किया, जिसमें खाद्यान्न पर लगभग 11,500 करोड़ रुपये की लागत शामिल है.
भारत दुनिया का पहला देश था जिसने 1952 में परिवार नियोजन के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया था. दशकों से, कार्यक्रम में नीति और वास्तविक कार्यक्रम कार्यान्वयन में परिवर्तन आया है और वर्तमान में न केवल जनसंख्या स्थिरीकरण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बल्कि इसे पुन: स्थापित किया जा रहा है. प्रजनन स्वास्थ्य को भी बढ़ावा देता है और मातृ, शिशु और बाल मृत्यु दर और मॉर्बिडिटी को कम करता है.
परिवार नियोजन कार्यक्रम के तहत कुछ पहलें इस प्रकार हैं:
- सात हाई फोकस वाले राज्यों – उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और असम के उच्च प्रजनन क्षमता वाले जिलों में कॉन्ट्रसेप्टिव और फैमिली प्लानिंग सर्विस तक पहुंच बढ़ाने के लिए मिशन परिवार विकास आया
- न्यू कॉन्ट्रसेप्टिव ऑप्शन
- इन वस्तुओं की मांग को प्रभावित करने के लिए पुन: डिज़ाइन की गई कॉन्ट्रसेप्टिव पैकेजिंग
- इंट्रा-यूटराइन कॉन्ट्रसेप्टिव डिवाइस (आईयूसीडी) जैसी अंतर विधियों पर जोर
जुलाई 2022 में नेशनल फैमिली प्लानिंग समिट की अध्यक्षता करते हुए, केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री डॉ. भारती प्रवीण पवार ने राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रभाव को साझा किया और कहा,
भारत ने रिपलेस्मेंट लेवल की प्रजनन क्षमता हासिल कर ली है, जिसमें 31 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने 2.1 या उससे कम की कुल प्रजनन दर हासिल कर ली है और आधुनिक गर्भनिरोधक उपयोग 56.5 प्रतिशत (एनएफएचएस 5) तक बढ़ गया है. एनएफएचएस-5 डेटा अंतर के तरीकों की ओर एक समग्र सकारात्मक बदलाव दिखाता है जो मातृ और शिशु मृत्यु दर और मॉर्बिडिटी को पॉजिटीव तरीके से प्रभावित करने में सहायक होगा.
इसे भी पढ़ें: जानिए कीटाणुओं से लड़ना और स्वस्थ भारत का निर्माण करना क्यों है जरूरी
ओरल रिहाइड्रेशन थेरेपी
2019 में दुनिया भर में 5 साल से कम उम्र के बच्चों में होने वाली सभी मौतों का लगभग 9 प्रतिशत हिस्सा डब्ल्यूएचओ और मातृ एवं शिशु महामारी विज्ञान अनुमान समूह (एमसीईई) 2020 के अनुमान के अनुसार, डायरिया बच्चों का एक प्रमुख हत्यारा है. यह 1,300 से अधिक छोटे बच्चों का कवर करता है. एक सिंपल ट्रीटमेंट सॉल्यूशन की उपलब्धता के बावजूद, हर दिन या लगभग 4,84,000 बच्चे एक वर्ष में मर रहे हैं. और वह समाधान है ओरल रिहाइड्रेशन थेरेपी (ओआरटी). यह दस्त से निर्जलीकरण का इलाज करने के लिए ओरल रूप से लिए गए नमक और चीनी-बेस्ड सॉल्यूशन से युक्त एक ट्रीटमेंट है. ग्लूकोज-इलेक्ट्रोलाइट सॉल्यूशन जिसे ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्ट (ओआरएस) कहा जाता है, हमारे शरीर के तरल पदार्थों को संतुलित करने और हाइड्रेशन को कंट्रोल करने में मदद करता है.
स्वास्थ्य हस्तक्षेप की लागत प्रभावी विधि के रूप में ओरल रिहाइड्रेशन साल्ट (ओआरएस) के महत्व को उजागर करने के लिए हर साल 29 जुलाई को विश्व ओआरएस दिवस मनाया जाता है.
यूनिवर्सल सॉल्ट आयोडाइजेशन
1994 से, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने सभी व्यक्तियों द्वारा आयोडीन का पर्याप्त सेवन सुनिश्चित करने के लिए एक सुरक्षित, लागत प्रभावी और टिकाऊ रणनीति के रूप में सार्वभौमिक नमक आयोडीनीकरण की सिफारिश की है. नमक के आयोडीनीकरण का अर्थ है नमक में आयोडीन मिलाना.
यूनिसेफ के अनुसार, बच्चों और गर्भवती महिलाओं की डाइट में आयोडीन के सही सेवन के बिना, बच्चों की वृद्धि और बौद्धिक विकास बाधित हो सकता है. गर्भवती महिलाओं में आयोडीन की कमी से बच्चे के मस्तिष्क का विकास, गर्भपात और जन्म के समय कम वजन हो सकता है.
आयोडीन की कमी घेंघा का सबसे आम कारण है. देश में घेंघा की समस्या को रोकने और कंट्रोल करने के लिए, भारत सरकार ने 1962 में राष्ट्रीय घेंघा कंट्रोल प्रोग्राम (एनजीसीपी) शुरू किया. इसके बाद, कार्यक्रम का नाम बदलकर 1992 में राष्ट्रीय आयोडीन की कमी विकार नियंत्रण कार्यक्रम (एनआईडीडीसीपी) कर दिया गया ताकि आयोडीन की कमी से होने वाले सभी विकारों को कवर किया जा सके और सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में लागू किया जा रहा है.
इसे भी पढ़ें: जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य: ‘इमीडिएट क्लाइमेट एक्शन’ के 5 कारण
अरविंद मॉडल: अनावश्यक अंधेपन को खत्म करने का एक मिशन
जी. वेंकटस्वामी जिन्हें लोकप्रिय रूप से ‘डॉ वी’ के नाम से जाना जाता है, अरविंद आई हॉस्पिटल्स के संस्थापक और पूर्व अध्यक्ष थे. अपने जीवनकाल के दौरान, डॉ. वी ने भारत में अंधेपन की समस्या से निपटने के लिए कई नवीन कार्यक्रमों की शुरुआत की, जैसे कि आंखों की देखभाल में आउटरीच कैप (1960) और नेत्रहीनों के लिए एक पुनर्वास केंद्र (1966). अंधेपन के खिलाफ लड़ाई में उनके काम की मान्यता में, डॉ. वी को 1973 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार मिला.
सरकारी सेवा से रिटायर होने पर, डॉ. वी ने 1976 में 11-बेड की सुविधा के रूप में अरविंद आई हॉस्पिटल की स्थापना की. अरविंद, ‘अनावश्यक अंधेपन को खत्म करने’ के अपने मिशन के साथ, बड़ी मात्रा में, हाई क्वालिटी और सस्ती देखभाल देता है. इसके 50 प्रतिशत रोगियों को या तो मुफ्त या अत्यधिक रियायती दर पर सेवाएं मिलती हैं, फिर भी संगठन आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना रहता है. अपने दिल में ‘इक्विटी’ के साथ, संगठन यह सुनिश्चित करता है कि सभी रोगियों को उनकी आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना समान उच्च गुणवत्ता वाली देखभाल और सेवा दी जाएं.
अरविंद में एक वर्ष में 4.5 लाख से अधिक आई सर्जरी या प्रोसेस की जाती हैं, जिससे यह दुनिया में सबसे बड़ा आई केयर प्रोवाइडर बन जाता है. अपनी स्थापना के बाद से, अरविंद ने 6 करोड़ (65 मिलियन) से अधिक आउट पेशेंट विजिट को संभाला है और 78 लाख (7.8 मिलियन) से अधिक सर्जरी की है. अरविंद आई केयर सिस्टम अब भारत और बाकी दुनिया के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य करता है.
इंडिया, द फ़ार्मेसी ऑफ़ द वर्ल्ड
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को दुनिया की फार्मेसी के रूप में वर्णित किया है क्योंकि इसने COVID-19 महामारी के दौरान कई देशों को बहुत जरूरी दवाएं भेजीं. 2021 में फार्मास्युटिकल सेक्टर के पहले ग्लोबल इनोवेशन समिट में बोलते हुए पीएम मोदी ने कहा,
चाहे वह लाइफस्टाइल हो, या दवाएं, या मेडिकल टेक्नोलॉजी, या टीके, हेल्थ केयर के हर पहलू ने पिछले दो वर्षों में वैश्विक ध्यान आकर्षित किया है. इस संदर्भ में, भारतीय दवा उद्योग भी चुनौती के लिए तैयार हो गया है. भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र द्वारा अर्जित वैश्विक विश्वास ने हाल के दिनों में भारत को ‘दुनिया की फार्मेसी’ कहा है.
उन्होंने आगे कहा, “कल्याण की हमारी परिभाषा भौतिक सीमाओं तक सीमित नहीं है. हम संपूर्ण मानव जाति की भलाई में विश्वास करते हैं और, हमने इस भावना को COVID-19 वैश्विक महामारी के दौरान पूरी दुनिया को दिखाया है.”
कैमिकल और उर्वरक मंत्रालय के फार्मास्यूटिकल्स विभाग की वार्षिक रिपोर्ट (2020-21) के अनुसार, भारतीय दवा उद्योग मात्रा के हिसाब से दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा और मूल्य के मामले में 14वां सबसे बड़ा उद्योग है.
सस्ती और सुलभ बनी दवाएं और इलाज इतना ही नहीं, भारत फार्मास्युटिकल विभाग द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना (पीएमबीजेपी) के तहत सस्ती कीमतों पर गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाएं भी देता है. भारत में 8,012 जनऔषधि केंद्रों में 1,616 दवाएं और 250 सर्जिकल आइटम सस्ते दर पर उपलब्ध हैं.
पीएमबीजेपी के तहत एक दवा की कीमत टॉप तीन ब्रांडेड दवाओं के औसत मूल्य के अधिकतम 50 प्रतिशत के सिद्धांत पर होती है. इसलिए, जन औषधि दवाओं की कीमत कम से कम 50 प्रतिशत और कुछ मामलों में ब्रांडेड दवाओं के बाजार मूल्य से 80 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक सस्ती है.
पद्म भूषण डॉ. देवी शेट्टी कम से कम 65,000 रुपये में हार्ट सर्जरी करवाती हैं. 2001 में, डॉ. शेट्टी ने नारायण हृदयालय की स्थापना की, जो कि बोम्मासांद्रा, बेंगलुरु में दुनिया का सबसे बड़ा हार्ट हॉस्पिटल है, जिसमें 1,000 से अधिक बेड हैं.
भारत ने वास्तव में विभिन्न स्वास्थ्य क्षेत्रों में सफलता हासिल की है, लेकिन स्वास्थ्य का अधिकार अभी भी मौलिक अधिकार नहीं है. हमें एक लंबा रास्ता तय करना है और एक स्वस्थ राष्ट्र बनने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है.
इसे भी पढ़ें: भारत के ग्रामीण स्वास्थ्य वर्कर हेल्थकेयर सिस्टम के लिए क्यों इतने अहम हैं? जानें कारण