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वायु प्रदूषण : भारत ने 6 सालों में पीएम 2.5 स्तर में करीब 19% की गिरावट रिकॉर्ड की, क्या यह आशा की किरण है?

आईआईटी दिल्ली से उपलब्ध हुए 1km x 1km सैटेलाइट डेटा के आधार पर किए गए विश्लेषण में पता चला कि ग्रामीण क्षेत्रों में पीएम 2.5 का स्तर 19.1 प्रतिशत तक कम हुआ है और शहरी इलाकों में 2017 और 2022 के बीच पीएम 2.5 के स्तर में 18.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई

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वायु प्रदूषण : भारत ने 6 सालों में पीएम 2.5 स्तर में करीब 19% की गिरावट रिकॉर्ड की, क्या यह आशा की किरण है?
पीएम 2.5 हवा में सबसे छोटे कण होते हैं

नई दिल्ली: भारत में वायु प्रदूषण के हालिया विश्लेषण की मानें तो एक अच्छी खबर और देश के लिए उम्मीद दिखाई दे रही है. यह विश्लेषण क्लाइमेट ट्रेंड्स की तरफ से किया गया है, जो एक शोध-आधारित परामर्श और क्षमता निर्माण पहल है जिसका उद्देश्य पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और सस्टेनेबल डेवलपमेंट के मुद्दों पर ज्यादा फोकस करना है। ग्रामीण और शहरी इलाकों में, हवा में पाए जाने वाले सूक्ष्मतम कणों — पीएम 2.5 के स्तर में पिछले कुछ सालों (2017-2022) में गिरावट दर्ज की गई है. ग्रामीण क्षेत्रों में पीएम 2.5 का स्तर 19.1 प्रतिशत तक कम हुआ है और शहरी इलाकों में 2017 और 2022 के बीच पीएम 2.5 के स्तर में 18.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है. आईआईटी दिल्ली से उपलब्ध हुए 1km x 1km सैटेलाइट डेटा के आधार पर किए गए विश्लेषण में ऐसा पता चला.

एक तरफ यह गिरावट काबिले तारीफ है तो दूसरी तरफ यह भी महत्वपूर्ण है कि वायु प्रदूषण किसी सरहद को नहीं मानता यानी यह शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में रहने वालों को प्रभावित करता है.

पीएम 2.5 क्या है?

हवा का गुणवत्ता सूचकांक मापने के लिए पार्टिकुलैट मैटर एक पैमाना है. आम तौर से इसे आकार के हिसाब से वर्गीकृत किया जाता है और इसके मुताबिक इसके चार समूह बताए गए हैं — पीएम10, पीएम2.5, पीएम1 और अल्ट्रा फाइन पार्टिकुलैट मैटर.

पीएम 2.5 मनुष्यों के बाल की चौड़ाई से 30 गुना छोटे होते हैं. 2.5 और 10 के बीच के आकार के कण मनुष्य के शरीर के कुदरती बैरियरों को भेद सकते हैं और सीधे फेफड़ों तक प्रवेश कर वहां परेशानी का कारण बन सकते हैं. यानी यह फेफड़ों के विकास को गंभीर नुकसान पहुंचाता है और फेफड़ों की बीमारियों का कारण भी बनता है.

“राष्ट्रीय स्तर पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में एयर क्वालिटी एक्सपोजर की स्थिति : एक तुलनात्मक अध्ययन” के निष्कर्ष

  1. तमाम ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में पिछले छह सालों (2017-2022) में पीएम 2.5 में स्थिरता और लगातार गिरावट देखी गई.
  2. शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में पीएम 2.5 के स्तर में क्रमश: 37.8 प्रतिशत और 38.1 प्रतिशत की कमी है, उत्तर प्रदेश ने 2017 से 2022 तक सबसे अच्छे आंकड़े दर्ज किए.
  3. महाराष्ट्र इस मामले में सबसे खराब प्रदर्शन वाला राज्य रहा, जहां शहरी पीएम 2.5 के स्तर में सिर्फ 7.7 प्रतिशत की गिरावट दिखी, वहीं ग्रामीण पीएम 2.5 स्तर में सिर्फ 8.2 प्रतिशत की कमी के चलते गुजरात भी सबसे कम सुधार वाला राज्य रहा.
  4. सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के बीच केवल चंडीगढ़ इकलौता केंद्रशासित प्रदेश रहा, जहां शहरी पीएम 2.5 के स्तर में 0.3 प्रतिशत का उछाल देखा गया.
  5. इस सुधार के बावजूद, केवल 14 राज्य शहरी पीएम 2.5 स्तर और 12 राज्य ग्रामीण पीएम 2.5 स्तर को सीपीसीबी की सुरक्षित सीमा 40 ug/m3 के दायरे में ला सके.
  6. भारत के चारों हिस्सों के शहरी—ग्रामीण ग्रिड के लिए उपलब्ध सैटेलाइट पीएम 2.5 डेटा से पता चला कि उत्तरी हिस्सा सबसे ज्यादा प्रदूषित है. यहां ग्रामीण क्षेत्रों में 2017 में पीएम 2.5 स्तर 74 40 ug/m3 और 2022 में 58 40 ug/m3 दिखा. जबकि शहरी क्षेत्रों में, पीएम 2.5 स्तर 2017 में 75 40 ug/m3 और 2022 में 60 40 ug/m3 रहा.

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सब प्रदूषण मुक्त नहीं है; हम अब भी प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं

यह डेटा कमोबेश उन आंकड़ों के आसपास बैठता है जो ऑन ग्राउंड सेंसर भी दिखा रहे हैं. जिस तरह हम वायु प्रदूषण मापते हैं, क्या उस संदर्भ में यह ब्रेकथ्रू है? क्लाइमेट ट्रेंड्स की डायरेक्टर आरती खोसला ने कहा,

मुझे ऐसा विश्वास है. मुझे लगता है कि हवा की क्वालिटी मापने के लिए आप धरातल पर मॉनिटर इंस्टॉल नहीं कर रहे हैं, लेकिन तकनीकी भाषा में एयरोसॉल ऑप्टिकल डेप्थ का इस्तेमाल कर रहे हैं और हवा में पीएम 2.5 कितना है, इसकी गणना के लिए इसे आप प्रॉक्सी के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं, यह डेटा तैयार करने के लिए बाहरी संसाधनों के उपयोग का नया तरीका है. मेरा खयाल है कि यह बेहतर है क्योंकि हवा की क्वालिटी लगातार मॉनिटर करने के सिस्टम में हम कितने तेज और कितने बेहतर हो सकते हैं, इसकी सीमाएं हमेशा होती हैं.

खोसला ने कहा कि देश भर में 4,000 वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशनों की आवश्यकता के मुकाबले भारत में अभी भी लगभग 700 से 800 निरंतर वायु निगरानी सिस्टम्स हैं. उन्होंने कहा,

सटीक संसाधनों के अभाव के चलते मुझे लगता है कि यह पर्याप्त है. स्थिरता किस तरह आ रही है, इस पर विविध ढंग से काम की जानकारी यह देता है.

खोसला ने चेतावनी दी कि ये “निष्कर्ष काफी नहीं है”. अगर हमें “पब्लिक हेल्थ” का लक्ष्य हासिल करना है तो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अभी और प्रयास करने होंगे, तमाम क्षेत्रों में पीएम 2.5 स्तर में गिरावट के मद्देनजर इस बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा,

हवा की गुणवत्ता को कम करने के लिए उठाए जाने वाले कदमों को केवल शहरों तक सीमित कर देना एक बार फिर टुकड़ों-टुकड़ों में किया जाने वाला नजरिया होगा, जब तक कि इस तरह की कवायद पूरे क्षेत्रीय स्तर पर नहीं की जाती. और मेरा खयाल है इस अध्ययन से हम जिस महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, वह यही है.

डब्लयूएचओ द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार भारतीय शहरों और गांवों में हवा की क्वालिटी अभी भी बेहतर नहीं है. ऐसा तब है जबकि भारत के पास 2019 से राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) है, जिसका मकसद 2025-26 तक शहरों में पार्टिकुलैट मैटर में 40 प्रतिशत तक की गिरावट का है. NCAP के तहत 131 शहरों को चिह्नित किया गया है, जहां इस गिरावट के लिए कदम उठाए जाने हैं.

2022 में मध्य और दक्षिण एशिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित 15 शहरों में से 12 भारत में पाए गए थे. स्विस फर्म IQAir की रिपोर्ट के अनुसार देश में सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर भिवाड़ी था और उसके बाद दिल्ली. 2022 में भारत में पीएम 2.5 का वार्षिक औसत स्तर 53.3 μg/m3 था, जो कि 2021 के 58.1 के औसत से थोड़ा सा कम था.

इस सबके बीच, क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट के निष्कर्ष कितने महत्वपूर्ण हैं? इसका उत्तर देते हुए, नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल (एनआरडीसी) इंडिया में वायु गुणवत्ता और स्वास्थ्य के प्रमुख पोलाश मुखर्जी ने पीएम 2.5 के स्तर में सुधार को “स्वागत योग्य आश्चर्य” बताया. उन्होंने कहा,

मेरे हिसाब से, हवा की क्वालिटी के प्रबंधन में जो क्षेत्रीय अप्रोच अपनाई गई, यह रिपोर्ट उसके महत्व को हाईलाइट करती है. वास्तव में, शहरी और ग्रामीण एयर क्वालिटी में कोई बड़ा अंतर नहीं है. अगर ऐसे देखा जाए कि NCAP ने शहरी क्षेत्रों पर फोकस किया, तो भी सच यही है कि हवा की गुणवत्ता राजनीतिक सरहदें नहीं देखती. इसका मतलब, कहा जा सकता है कि एक बड़े इलाके में प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं.

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वायु प्रदूषण के निजी अनुभवों पर किताब लिख चुके वायु प्रदूषण विशेषज्ञ डॉ. मिलिंद कुलकर्णी ग्रामीण क्षेत्रों में पीएम 2.5 स्तर के ज्यादा होने को ‘खुलासे’ के तौर पर लेते हैं. लेकिन ग्रामीण इलाकों में इतना प्रदूषण स्तर क्यों है? कोई भी यह बात समझ सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में इतने वाहन या औद्योगिक व आबादी घनत्व नहीं होता. डॉ. कुलकर्णी ने कहा,

यहां शोध की संभावना है. मेरे पास जो डेटा है, मुझे लगता है और आप भी जानते हैं कि अगर आप दिल्ली में रह रहे हैं तो सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण ग्रामीण क्षेत्रों और हरियाणा जैसे सीमावर्ती राज्यों से आ रहा है. मेरा अनुमान है कि पराली जलाने और ऐसी अन्य गतिविधियों के चलते ऐसा है. यह भी कारण है कि ग्रामीण इलाकों में लोग शहरियों की तुलना में कमतर क्वालिटी का ईंधन इस्तेमाल कर रहे हैं.

डॉ. कुलकर्णी ने हवा की क्वालिटी को मापने के अलग-अलग आयामों पर बात रखी, जो स्वास्थ्य के जोखिम के संकेत भी देते हैं. उन्होंने कहा,

हम वायु प्रदूषण के व्यक्तिगत जोखिम के मूल्यांकन में निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? जैसे, जब मैं दिन भर यात्रा करता हूं, तो सड़कों पर मेरा जोखिम एक ट्रैफिक कांस्टेबल के प्रदूषण के संपर्क से अलग होता है. हमने व्यक्तिगत प्रदर्शन की निगरानी के लिए हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और अन्य संस्थानों के साथ शोध किया और मुझे लगता है कि भारत को उस हिस्से में बहुत कुछ करना चाहिए.

प्रदूषित हवा में एक्सपोजर के स्वास्थ्य पर प्रभाव स्पष्ट हैं यानी वायु प्रदूषण से जुड़े रोग बहुत बढ़ रहे हैं. दिसंबर 2022 में टीम बनेगा स्वस्थ इंडिया के साथ एक पुराने साक्षात्कार में, गुरुग्राम स्थित मेडिसिटी मेदांता में चेस्ट सर्जरी, चेस्ट ओंको सर्जरी और लंग ट्रांसप्लांटैशन विभाग के प्रमुख डॉ. अरविंद कुमार ने जहरीली हवा में सांस लेने के प्रभावों को हाईलाइट किया था. दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर डॉ. कुमार ने कहा था कि सिर से लेकर पांव तक, कोई भी अंग या कोशिका वायु प्रदूषण के नकारात्मक प्रभाव से बच नहीं पाती. उन्होंने समझाया था,

दीर्घकालिक प्रभावों में बच्चों में विभिन्न प्रकार के कैंसर, बच्चों में उम्र से पहले ही हाइपरटेंशन, ब्रेन अटैक का जोखिम 10 से 20 गुना ज्यादा होना और दिल का दौरा, फेफड़ों का कैंसर, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज (COPD), एम्फीसीमा, कई प्रकार के अंत:स्रावी विकृतियां और अब तो सबसे डरावना यह है कि मोटापा और डायबिटीज तक प्रदूषण के एक्सपोजर से जुड़े रोग हैं. कुल मिलाकर, वायु प्रदूषण आपको बीमार करता है, आपकी क्षमताएं घटाता है और समय से पहले मार डालता है.

रेस्पायरर लिविंग साइन्सेज प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक रौनक सुतारिया ने इस पर और विस्तार से कहा,

इस तरह के मॉडल अध्ययनों के चलते, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का अनुमान है कि भारत में करीब 15 लाख मौतें ऐसे हो रही हैं; श्वसन संबंधी विकृतियां तो 2 से 2.5 करोड़ तक हैं.

WHO के मुताबिक पीएम 2.5 का वार्षिक औसत 5 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर (µg/m3) होना चाहिए, जबकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) 40 µg/m3 की सिफारिश करता है. इस पर सुतारिया का कहना है,

हम 60 माइक्रोग्राम कैंसर पैदा करने वाले कण पूरे साल के दौरान सांस में ले रहे हैं. कैंसर के जोखिम के प्रति आपके एक्सपोजर में कमी से कैंसर के खतरे में कोई कमी नहीं होती क्योंकि आप अब भी कैंसर वाले पार्टिकुलैट मैटर के प्रति एक्सपोज हैं. फिर भी मुझे लगता है कि कमी के प्रतिशत को सराहा जाना चाहिए लेकिन हमारी प्राथमिकताएं और ध्यान कम नहीं हो सकता क्योंकि कैंसर के लिए एक्सपोजर कैंसर के लिए एक्सपोजर ही है.

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लेकिन पीएम 2.5 स्तर में गिरावट कैसे संभव हुई? क्या इसका वाहनों सहित स्वच्छ ईंधन की उपलब्धता और डीजल वाहनों के उपयोग में गिरावट से कुछ लेना-देना है? खोसला ने कहा,

मैं मानती हूं कि ये ओवरऑल आंकड़े वास्तव में नीतिगत परिवर्तनों से संभव हुए हैं, जब यह समझा गया कि वायु प्रदूषण एक समस्या है. अगर आप काफी पेचीदा सोर्स अपोर्शन्मेंट अध्ययनों, जो शहरों के लिए कहे जाते हैं, को देखें तो आपको पता चलेगा कि ट्रांसपोर्ट प्रदूषण का बड़ा स्रोत है लेकिन उद्योग भी एक बड़ा स्रोत है. इसके अलावा कुछ छिटपुट मौसमी स्रोत भी हैं जैसे पराली जलाना, जिनसे देश के एक खास हिस्से में समस्या में बड़ा इजाफा हो जाता है.

खोसला का मानना है कि मामूली से मामूली बात भी अहम है और प्रदूषण कम करने के लिए हर संभव कदम उठाना चाहिए. वह सुझाती हैं,

यदि आप कुछ ऐसी सड़कें बनाते हैं जहां आप ट्रकों को शहर में नहीं लाते हैं तो इसमें एक भूमिका निभानी होगी. यदि आप यह सुनिश्चित करते हैं कि डीजल जेन-सेट न चलें और आप छोटे और मध्यम उद्यमों को दिन-प्रतिदिन वायु प्रदूषण को कम करने के लिए कड़े प्रयास करें. इन सभी चीजों की एक भूमिका है, और मुझे लगता है कि इन सभी चीजों का संयुक्त प्रभाव है जो हम देख रहे हैं। एक स्थिरता.

लेकिन खोसला का मत है कि जिस तरह का सुधार दिखा है, यानी छह सालों से 20 से 25 प्रतिशत तक की कमी, यह महत्वपूर्ण नहीं है. उन्होंने कहा,

यह एक औसत संख्या है जो मिलनी ही चाहिए थी. तब जबकि देश में वायु प्रदूषण पर लगाम के लिए नीति के तौर पर हमारे पास केवल नेशनल क्लीनर प्रोग्राम ही है. अगर हमें खुश होना ही था, तो ये सुधार 30 से 35 प्रतिशत तक होने चाहिए थे. इन सुधारों से आत्मसंतुष्ट हो जाने और मुबारकबाद देते रहने के बजाय अच्छा है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि हम सही दिशा में जा रहे हैं लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है. जो स्रोत जहां है उसे इस दिशा में कदम उठाना चाहिए. और इसका मतलब यह है कि जो समस्या दिल्ली में है, वही शायद आगरा में है क्योंकि एक सी हवा के दायरे में ही दोनों हैं. इसलिए इस पूरे क्षेत्र में तीन या चार प्रमुख स्रोतों को प्रदूषण घटाने के एक जैसे कदम उठाने चाहिए.

लेकिन, क्षेत्र की भौगोलिकता को भी ध्यान में रखना होगा. जैसे, मुंबई में, शांत हवाएं प्रदूषण के उच्च स्तर के निर्माण के लिए भूमिका निभाती हैं.

सवाल अब भी वही है-क्या भारत NCAP के तहत अपने लक्ष्य हासिल कर सकेगा? इसके जवाब में मुखर्जी का कहना है,

हमने अपने जो लक्ष्य तय किए हैं, वो वायु गुणवत्ता के संदर्भ में हैं, लेकिन हमें इसके आगे जाना होगा. स्वास्थ्य संबंधी परिणामों के उद्देश्य तय करने के साथ ही इन्हें मॉनिटर करने की जरूरत है. हमें जानना होगा कि शहरी स्तर पर वायु की गुणवत्ता के चलते कितनी मौतें हो रही हैं और अपंगताओं का आंकड़ा क्या है. इसके साथ ही, नैशनल ऐम्बिएंट एयर क्वालिटी स्टैंडर्ड पर भी एक बार फिर विचार करने की जरूरत है. बताया गया है कि 2009 के बाद से भारत इन स्टैंडर्ड का रिविजन कर रहा है, बेहद महत्वपूर्ण है कि यह रिविजन उस अनुभवजन्य हेल्थ आउटकम डेटा को संज्ञान में ले जो जमीनी स्तर से जुटाया गया है. और उस महामारी विज्ञान संबंधी प्रमाणों का भी, जिसे अब हम देश में ही तैयार करने लगे हैं. तो, एक बार जब हम ऐसा करना शुरू करेंगे, तभी तो हमें पता चल सकेगा कि हमारे लक्ष्य वास्तव में हैं क्या.

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