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राजस्थान के कालबेलिया समुदाय के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की पड़ताल

स्वास्थ्य हर किसी का बुनियादी अधिकार है, लेकिन क्या राजस्थान के कालबेलिया समुदाय जैसे हाशिए पर रहने वाले समुदायों को यह मयस्‍सर है?

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राजस्थान के कालबेलिया समुदाय के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की पड़ताल
पारंपरिक रूप से खानाबदोश जिंदगी जीने वाले कालबेलिया जनजाति के ज्‍यादातर लोगों के साथ ऐसी त्रासदियां जुड़ी हुई हैं. ये लोग बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम हैं और जागरूकता की कमी के चलते एक अभावग्रस्‍त जीवन जीने को मजबूर हैं.

नई दिल्ली: 19 वर्षीय सुरेश कूड़ा बीनने का काम करता है. वह कालबेलिया जनजाति से संबंध रखता है. पर स्वास्थ्य सेवा की कमी, सुरक्षात्मक उपकरण न होने और अपने अधिकारों के बारे में जानकारी की कमी होना उन्हें एक नहीं, बल्कि दो बार महंगा पड़ चुका है. पहली बार, जब उसे अपने पिता की दुर्घटना के बाद स्कूल छोड़ना पड़ा, और दूसरी बार, जब पिछले साल अगस्त में कूड़ा बीनते वक्‍त एक नुकीली चीज से चोट लगने से उसकी बाईं आंख की रोशनी चली गई.

यह सिर्फ सुरेश ही कहानी नहीं है. राजस्थान से एक दूर-दराज इलाकों में पारंपरिक रूप से खानाबदोश जिंदगी जीने वाले कालबेलिया जनजाति के ज्‍यादातर लोगों के साथ ऐसी त्रासदियां जुड़ी हुई हैं. ये लोग बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम हैं और जागरूकता की कमी के चलते एक अभावग्रस्‍त जीवन जीने को मजबूर हैं.

घुमंतू और अर्ध-घुमंतू एवं खानाबदोश जनजातियों की आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत है. अपनी जिंदगी की अनिश्चितता और जागरूकता की कमी के कारण वे अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानते, जिसका इनके जीवन पर काफी नकारात्‍मक असर होता है. ऐसे में सोचने वाली बात है कि जब हम किसी की भी पीछे न छूटने और सभी को मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की बात करते हैं, तो क्या इस जनजातीय समुदाय के लोग उनमें शामिल हैं? क्या वे इसका हिस्सा हैं?

राजाओं की भूमि कहे जाने वाले राजस्थान का एक समृद्ध इतिहास और विविधतापूर्ण संस्कृति रही है. यह अपने महलों और किलों, मंदिरों, किंवदंतियों और विद्या के लिए जाना जाता है. यह रंगीन और जीवंत शहरों से लेकर सुदूर रेगिस्तानी गांवों तक, राजस्थान कई आदिवासी और खानाबदोश समुदायों का भी निवास है. दुर्भाग्यवश, राजस्थान की विविधता और परंपराओं में इन जनजातियों और छोटे समुदायों के योगदान की अक्सर अनदेखी की जाती है.

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कालबेलिया महिलाओं को कलाबाजी भरे उत्‍तेजक नृत्य और उनकी काली, कढ़ाईदार पारंपरिक पोशाक के लिए जाना जाता है. पर, ज्‍यादातर लोग कालबेलिया समुदाय और इसकी अन्य परंपराओं के बारे में इससे ज्‍यादा नहीं जानते हैं.

कालबेलिया कभी सांपों को संभालने वाले हुआ करते थे. कालबेलिया शब्द ही ‘काल’ अर्थात सर्प और ‘बेलिया’ अर्थात मित्र शब्दों से मिलकर बना है. कालबेलिया जनजाति का पारंपरिक पेशा सांपों को पकड़ना और उनके जहर का व्यापार करना रहा है. लेकिन, 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम लागू होने से इस पर रोक लगने के बाद इस जनजाति के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया. वे खानाबदोश सपेरों के रूप में अपनी पारंपरिक आजीविका से दूर चले गए और जो भी काम उन्हें मिला, वही करने लगे.

डॉ. मदन मीणा, ट्रस्टी, भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर और प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर, ‘वॉयसिंग द कम्युनिटी’: ए स्टडी ऑन द डी-नोटिफाइड एंड नोमैडिक ट्राइब्स ऑफ राजस्थान, गुजरात एंड मध्य प्रदेश ने हमें बताया,

कालबेलिया सांपों पर निर्भर थे और सपेरों के रूप में, लोगों का मनोरंजन किया करते थे. 1972 में जब वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम आया, तो इस समुदाय को सांप रखने से रोक दिया गया था, लेकिन उनके लिए जीविका का कोई अन्य विकल्प नहीं था. उन्हें भीख मांगने के लिए छोड़ दिया गया था. इसलिए अब वे कूड़ा बीनने वाले बन गए और कबाड़ इकट्ठा करते हैं.

डॉ मीणा ने बताया कि किस तरह वन (संरक्षण) अधिनियम ने कालबेलिया जनजाति के लेगों के जीवन को और कठिन बना दिया.

यह जनजाति जंगल पर निर्भर थी इसलिए 1980 में आए वन संरक्षण और वन्यजीव अधिनियम ने उन्हें बहुत बुरी तरह प्रभावित किया.

कालबेलिया समुदाय भारत में सबसे पिछड़े, वंचित और उपेक्षित समुदायों में से एक है. हालांकि कालबेलिया जैसे आदिवासी समुदाय सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हैं और स्वदेशी ज्ञान और पुरानी संस्कृतियों एवं परंपराओं को संरक्षित करने में एक अमूल्य भूमिका निभाते हैं, फिर भी इनके इस योगदान को कभी महत्‍व नहीं दिया गया. हालांकि उन्हें अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में वर्गीकृत किया गया है, लेकिन इससे उन्हें न के बराबर ही लाभ हुआ है. डॉ मीणा ने कहा,

समुदायों को अलग-अलग वर्गीकृत किया गया है लेकिन, इसके लिए कोई मानवविज्ञान (Anthropology) अध्ययन नहीं किया गया है. कालबेलिया और जोगी एक ही हैं, लेकिन उन्हें अलग-अलग वर्गीकृत किया गया है, इसलिए समुदाय कोई लाभ नहीं पा सका है.

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इस मुद्दे पर आगे बात करते हुए राजस्थान के कालबेलिया जनजाति के अध्यक्ष किशन नाथ ने हमें बताया,

राजस्थान की बात करें, तो कहीं भी कालबेलिया समुदाय के किसी हिस्से को पानी या सड़क की सुविधा नहीं दी गई है. उनके पास बहुत ही सीमित जगह है. कालबेलिया समुदाय को कोई आर्थिक मदद भी नहीं दी गई है. वास्तव में, उन्हें भूमि का कोई अधिकार ही नहीं दिया गया है. उन्‍हें घर और पर्याप्‍त भोजन तक उपलब्‍ध नहीं है, यहां तक कि उनके पास राशन कार्ड भी नहीं हैं.

स्वतंत्रता के बाद से ही घुमंतू जनजातियां हाशिए पर जीवन व्यतीत कर रही हैं. ग्रामीण बस्तियों की हालत और लैंगिक विशिष्टता की दृष्टि से देखा जाए, तो इनकी स्थिति बहुत विकट है.

गंगा अपनी 70 वर्षीय मां के साथ रहती है. उसने 12 साल की उम्र में एक दुर्घटना में अपना पैर खो दिया था. उसके पास रोजी-रोटी कमाने का कोई साधन नहीं है और वह उदयपुर के ढोलकीपाटी गांव के बाहर एक कच्चे घर में रहती है, जो एक अस्थायी तम्बू है. गंगा बताती है –

कभी-कभी मेरी मां या मैं पास की एक झुग्गी बस्ती में जाते हैं और 5-6 किलो गेहूं का आटा मांग कर लाते हैं, जिसे मैं और मेरी मां अगले 5-6 दिनों तक खाते हैं. जब गेहूं का आटा खत्म हो जाता है, तो हम फिर से मांगने चले जाते हैं.

मां-बेटी दोनों जीवन में किसी चमत्कार का इंतजार कर रही हैं. गंगा कहती है,

करने के लिए कोई काम नहीं है. मैं इन बैसाखियों से क्या काम कर पाऊंगी और मेरी मां अब बूढ़ी हो गई है, थक जाती है और चलते-चलते हांफने लगती है.

गंगा को पेंशन के रूप में 750 रुपये मिलते हैं और उसकी मां को 500 रुपये मिलते हैं. गंगा पूछती है,

इससे हमारा भला कितना गुजारा हो सकता है?

उधर, 8 महीने पहले अपनी आंख खोने के बावजूद सुरेश के पास भी कूड़ा बीनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. सुरेश ने बताया –

मैं एक कार इंजन पर काम कर रहा था जो हमें स्क्रैप के रूप में मिला, सब कुछ लगभग हो चुका था, तभी एक छोटा सा टुकड़ा उड़कर मेरी आंख पर लगा और मेरी बाईं आंख में एक छोटा सा छेद हो गया.

चोटिल होने के बावजूद, सुरेश अगली सुबह काम पर चला गया, लेकिन फिर उसकी आंख में दर्द होने लगा. सुरेश बताता है-

मैंने अपनी मां से कहा कि मेरे छोटे भाई को मुझसे मिलने के लिए अस्पताल भेजो. डॉक्टर ने मुझे बताया कि मेरी आंख के अंदर कट लग गया है. अब मैं अपनी बाईं आंख से कुछ भी नहीं देख पा रहा हूं, लेकिन मैं अभी भी काम पर जा रहा हूं, क्योंकि मैं अपने परिवार में एकमात्र कमाने वाला सदस्य हूं और मुझे रोजी-रोटी कमानी है ताकि मैं अपने माता-पिता को खिला सकूं.

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कालबेलिया समुदाय के अधिकांश लोग केवल किसी तरह जीने-खाने भर का कमा पाते हैं और बचत के लिए उनके पास कुछ भी नहीं होता. सुरेश अपनी आंख खोने के बाद भी, परिवार की खातिर बिना किसी सुरक्षात्मक उपकरण के काम करना जारी रखे हुए है, वह यह जानता ही नहीं कि बचाव के लिए इस तरह की चीजें भी होती हैं और इसका उपयोग करके वह वर्तमान स्थिति के मुकाबले कहीं ज्‍यादा सुरक्षित ढंग से काम कर सकता है.

सूरज की मां, काली नाथ को काम करते समय पहने जाने वाले किसी भी तरह के सेफ्टी गियर (सुरक्षात्मक उपकरण) के बारे में पता ही नहीं है.

यह गर्म है, हम इसे कैसे पहनें? साथ ही यह कभी-कभी भीग भी सकता है, फिर हम इसे कैसे हटाएंगे? हम कोई सेफ्टी गियर पहनने की आदत नहीं हैं.

यह सूरज और उसकी मां काली हैं जो कचरा इकट्ठा करते हैं और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कमाते हैं. काली बताती हैं –

परिवार में सिर्फ मैं और मेरा बेटा ही कमाते हैं. इसके अलावा मेरी बेटी भी है, जिसकी हमें अभी शादी तय करनी है. मेरे पति अपनी खराब सेहत के कारण काम नहीं कर सकते. हमें आर्थिक परेशानी है. हमारे घर में भोजन और साफ पानी तक नहीं है. मैं लगभग 100-200 रुपये कमाती हूं, और मेरा बेटा भी 100-200 रुपये कमाकर लाता है.

स्वास्थ्य एक मौलिक मानव अधिकार है, पर यह घुमंतू जनजातियों के लिए सबसे बड़ी समस्‍याओं में से एक है. दक्षिणी राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में, जहां आदिवासी आबादी रहती है, वहां बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज 24/7 स्वास्थ्य सुविधाएं चलाती हैं,.

कई महिलाओं ने अपने बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर अपने अनुभव साझा किए. आरती नाथ ने कहा,

हमारे बच्चे गंदे पानी और मच्छरों की वजह से बीमार पड़ते हैं. उन्हें डेंगू जैसी वेक्टर जनित बीमारियां हो जाती हैं. हम उन्हें अस्पताल ले जाते हैं. मच्छरों और गंदगी के चलते अक्सर उन्हें दस्त व उल्टी की समस्‍या हो जाती है.

कालबेलिया समुदाय में कुपोषण एक बड़ी समस्या है. राजस्थान सरकार के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग की आशा सहयोगिनी राधा मेगवाल बताती हैं,

ये लोग खाना तो खाते हैं, लेकिन पौष्टिक भोजन उन्‍हें नहीं मिल पाता है, उनके आसपास गंदगी भरा माहौल रहता है. इसलिए जब वे खाते हैं, तब वह गंदगी के बीच में होते हैं और उनके भोजन पर मक्खियां होती हैं. वे अपने स्थान को साफ और स्वच्छ नहीं रखते हैं, इसलिए वे कई प्रकार के कीटाणुओं की चपेट में आ जाते हैं, जिससे उन्हें दस्त और उल्टी जैसी समस्‍याएं होती रहती हैं.

कालबेलिया समुदाय में स्वास्थ्य जांच और नियमित टीकाकरण करवाना भी एक अन्य मुद्दा है. इस बारे में राधा कहती हैं-

जब बच्चे इस केंद्र पर आते हैं तो परिवारों को हम पर भरोसा नहीं होता और साथ ही उन्‍हें टीकाकरण से भी डर लगता है कि इससे उनके बच्चे को बुखार हो जाएगा. यहां तक कि जब हम उन्हें यह बताने के लिए जाते हैं कि यह दवा किस लिए है, तब भी उन्हें यही लगता है कि वैक्‍सीन से बुखार और दर्द होगा. टीका लगने के डर से वे हमें करीब भी नहीं आने देते. हमें कई दफा उन्हें टीका लगवाने के लिए उनके घरों से बाहर घसीटना पड़ता है.

सपना के 3 बच्चे हैं. 6 साल का नामेश, 3 साल का भावेश और 8 महीने का कुंदन. उनमें से किसी का भी जन्म प्रमाण पत्र नहीं बना है और समुदाय के अधिकांश बच्चों की तरह, उनमें से कोई भी स्कूल नहीं जाता है. सपना का कहना है –

मेरे किसी भी बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र नहीं है और इस वजह से हम उन्हें किसी स्कूल में दाखिला नहीं दिला पा रहे हैं. हम जहां भी जाते हैं, वे जन्म प्रमाण पत्र मांगते हैं. अगर हम अपना आधार कार्ड बनवाने जाते हैं तो हमसे जन्म प्रमाण पत्र मांगा जाता है.

आरती की तरह सपना ने भी अपने बच्चों को बार-बार बीमार होते देखने का दर्द बयां किया. उसने कहा –

बच्चे बीमार पड़ते रहते हैं और हमें उन्हें अस्पताल ले जाने की जरूरत है. रहने के लिहाज से यह इलाका बहुत गंदा है. यहां मच्छर पनपते हैं, गंदा पानी, कचरा चारों तरफ है और बच्चे धूल और गंदगी के बीच रहते हैं. जब हम कूड़ा उठाने जाते हैं, तो हमें उन्हें घर पर ही छोड़ना पड़ता है. वे अक्सर भूखे रह जाते हैं. उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. हमारे पास पैसा नहीं है, इसलिए हमें काम पर जाना ही पड़ता है.

भाषा शोध एवं प्रकाशन केंद्र के ट्रस्टी डॉ. मदन मीणा ने कहा,

अनपढ़ होने के कारण उनके दस्तावेज भी गलत हैं. उनमें से न कोई अपने अधिकारों के बारे में जानता है और न ही इसमें कोई उनकी मदद करता है.

एनजीओ भाषा की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार कालबेलिया समुदाय के 44.1 प्रतिशत लोगों के पास कोई जन्म प्रमाण पत्र नहीं है. यह पूरे भारत में ऐसे लोगों की सबसे बड़ी तादाद है. यह उनके बीच शिक्षा की कमी का भी नतीजा है, हालांकि विजय नाथ अपने समुदाय के लोगों को अपने कागजात व्यवस्थित करने में मदद करने की कोशिश कर रहे हैं.

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विजय कालबेलिया समुदाय के चंद शिक्षित लोगों में से एक हैं और शिक्षक बनने के अपने सपने की दिशा में प्रयासरत हैं. विजय सोशल मीडिया का उपयोग कर लोगों तक पहुंच कर संवाद कायम करने और बिना किसी दस्तावेज के लोगों के लिए आधार कार्ड बनवाने की प्रक्रिया के बारे में जानकारी देने का काम कर रहे हैं. उन्होंने बताया,

मेरे पिता ने मुझे शिक्षा का उपहार दिया, वास्तव में, अपने बड़े परिवार में मैं अकेला व्यक्ति हूं, जो पढ़ा-लिखा है. मेरे समुदाय के अधिकांश लोगों के पास आधार कार्ड नहीं है, जो सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है. जब मुझे यह पता चला तो मैंने स्वेच्छा से यहां के लोगों के आधार कार्ड बनवाए.

सामाजिक कार्यकर्ता राजनाथ मेहर बताते हैं कि राजस्थान की कनिपव नाथ कालबेलिया समाज कल्याण समिति पिछले चार वर्षों से एक सुधार केंद्र चला रही है. उन्हें लगता है कि ऐसा नहीं है कि बच्चे पढ़ना नहीं चाहते हैं, लेकिन उनके माता-पिता या अभिभावक शिक्षा का महत्व ही नहीं जानते. वह बताते हैं,

यहां सरकारी स्कूल के साथ-साथ प्राइवेट स्कूल भी हैं, जहां शिक्षक परिवारों से संपर्क करते हैं. इस सबके बावजूद, जब तक यह समुदाय खुद सामाजिक रूप से जागरूक नहीं होगा, तब तक उन्हें शिक्षा से जोड़ना मुश्किल है.

जीवन की कठिन परिस्थितियां और स्वास्थ्य सेवा जैसे बुनियादी अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी कालबेलिया के लिए जीवन को बहुत कठिन बना देती है.

कालबेलिया नृत्य इस जनजाति और राज्य की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पहचान है. 2010 में राजस्थान के कालबेलिया लोक गीतों और नृत्यों को यूनेस्को की अमूर्त विरासत सूची (UNESCO Intangible Heritage List) में शामिल किया गया था.

अजमेर की गुलाबो सपेरा, जो शायद पारंपरिक कालबेलिया नृत्य की सबसे प्रसिद्ध डांसर हैं, ने अपनी कला को दुनिया भर में पहुंचाया है. जन्म के 7 घंटे बाद ही उन्‍हें जिंदा दफना दिया गया था, क्योंकि बेटी को अभिशाप माना जाता था. गुलाबो की जिंदगी का सफर वास्तव में प्रेरणादायक है. कालबेलिया नृत्य को जीवित रखने के लिए न सिर्फ उन्हें पद्मश्री पुरस्‍कार प्राप्त हुआ है, बल्कि उनकी उपलब्धियों ने समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या को समाप्त करने में भी मदद की है. वह अब अपनी विरासत उन विद्यार्थियों को सौंपना चाहती हैं जो कालबेलिया नृत्य की परंपरा को जारी रखें.

कालबेलिया नृत्य के जरिये हमारे समुदाय को पहचान दिलाने की शुरुआत मेरे साथ हुई थी. इसलिए, मैं नहीं चाहती कि यह नृत्य मेरे साथ ही खत्‍म हो जाए. हालांकि ऐसा होने की संभावना नहीं है क्योंकि कालबेलिया नृत्य अब विश्व प्रसिद्ध है, लड़कियां इसे सीख रही हैं और इसे राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर भी प्रदर्शित किया जा रहा है. जब भी यह नृत्य विदेशों में आयोजित उत्सवों में पेश किया जाता है, तो यह भारत और राजस्थान दोनों को सुर्खियों में लाता है. वहां इस बात की चर्चा होती है कि हमने कालबेलिया नृत्य को आमंत्रित किया है, जो सपेरों का नृत्य है. इसलिए, मुझे आशा है कि यह जारी रहेगा और हमारी यह लोक कला भी संरक्षित रहेगी. मेरा सपना है कि मैं एक ऐसा स्कूल बनाऊं जहां हम यह डांस सिखाएं. एक सपेरा स्कूल, जहां मैं बच्चों को डांस सिखाने के साथ ही शिक्षा भी दे सकूं, क्योंकि वे पढ़ेंगे तभी आगे बढ़ेंगे. आज अगर लोक कलाकारों को परेशानी हो रही है, तो यह केवल शिक्षा की कमी के कारण है.

जहां कालबेलिया समुदाय से ताल्लुक रखने वाली गुलाबो ने अपने गायन और नृत्य से दुनिया भर में अपनी पहचान बनाई है, वहीं रामुदी जैसे कई डांसर्स अभी भी हैं, जिन्हें गुजारा करने के लिए भीख मांगनी पड़ती है. रामुदी दुखी मन से बताती हैं –

मेरे बच्चों के पिता शराब पीते थे, इसके लिए वह लोगों से पैसे उधार लेते थे. जब मैं एक प्रदर्शन के बाद घर लौटती, तो मुझे पता चलता कि हमें किसी के 10,000 तो किसी और के 20,000 रुपये का कर्ज चुकाना है. धीरे-धीरे स्थिति और भी खराब होती गई. मेरे पति ने शराब पीना नहीं छोड़ा. तीन या चार साल बाद पता चला कि उन्हें पेट का कैंसर है. मैं 10,000 रुपये खर्च कर उसे एक सरकारी अस्पताल और फिर निजी अस्पतालों में भी ले गई, पर समय के साथ उनकी हालत बिगड़ती गई. दूसरी ओर इस सबके चलते और मेरे नृत्‍य प्रदर्शनों की संख्या भी घटती जा रही थी, क्‍योंकि मैं पति की देखभाल में लग गई थी. घर पर मेरी एक जवान बेटी थी, मैंने अपना घर एक लाख रुपये में गिरवी रख दिया. अगर मैं बाहर भीख मांगने न जाती, तो मेरे पास अपने बीमार पति को खिलाने के लिए कुछ नहीं था.

रामुदी जयपुर की कलाकर कॉलोनी में एक मंदिर में रहती हैं. कालबेलिया समुदाय के लोगों के लिए काम खोजना भी आसान नहीं होता है, क्योंकि एक अपराधी जनजाति होने की छवि उनके साथ जुड़ गई है, जिसकी जड़ें औपनिवेशिक युग से चली आ रही हैं, जब अंग्रेजों ने कालबेलियों को आपराधिक जनजाति अधिनियम में शामिल कर उन्हें ‘आदतन अपराधी’ घोषित कर दिया था. कोविड के दौरान तो इनकी हालत और भी बदतर हो गई.

रामुदी की बेटी ललिता ने अपने संघर्षों को कुछ इस तरह बयां किया,

यह मेरे लिए बहुत मुश्किल दौर रहा. बचपन से ही मैंने दुख के सिवा कुछ नहीं देखा है. मां को भीख मांगते देखा है, पिता गुजर गए. अपनी मां को भीख मांगते देखना बेहद मुश्किल है. लोग मुझसे कहते हैं, तुम्हारी मां भीख मांगने जाती है, तुम कुछ करती क्यों नहीं?

शिक्षित न होने के कारण उसे रोजगार नहीं मिल सका है.

मैं सिर्फ एक महिला हूं, जो पढ़ना-लिखना नहीं जानती. हमारी परवरिश ऐसी रही कि मैं कभी स्‍कूल ही नहीं जा सकी. अब, जब मैं इसके बारे में सोचती हूं, तो मुझे बुरा लगता है कि मैं अपनी मां के लिए कुछ नहीं कर सकी और मैं अब भी नहीं कर पा रही हूं. मेरी मां भीख मांगने जाती है और हमारे लिए खाना लाती है. वह हमें खाना देती है, तभी हम खाते हैं. अगर वह नहीं ला पाती है, तो हमें खाए बिना रहना पड़ता है. मैं प्रार्थना करती हूं कि किसी तरह हमारी स्थिति थोड़ी सुधरे.

लंबे अरसे से खानाबदोश जनजाति के रूप में रह रहे कालबेलिया के पास अब भी अपना कोई स्‍थायी पता-ठिकाना नहीं है और न ही उनके पास कोई जमीन है. यहां तक कि उनके यहां लोगों की मृत्‍यु होने पर उनका ठीक से अंतिम संस्‍कार तक नहीं हो पाता. भेदभाव और सामाजिक कलंक के कारण उन्हें श्मशान स्थलों का उपयोग करने से रोक दिया जाता है. इसी के चलते ललिता के परिवार के आठ सदस्यों को उसके घर के ठीक बगल में दफनाया गया है. ललिता नाथ ने बताया –

मेरे पिता, मेरे भाई और मेरे दादाजी को यहां दफनाया गया है. हमें थोड़ा डर जरूर लगता है, लेकिन हमारे परिवार के सदस्यों को दफनाने के लिए जगह नहीं है. इसके अलावा हम और कर भी क्या सकते हैं? इसलिए हमने उन्हें यहीं दफना दिया. यहां कई कब्रें हैं जहां हम रहते हैं, जिसके कारण हम अपना घर नहीं बना पा रहे हैं और हमें डर भी लगता है.

किशन नाथ ने 17 साल की उम्र में अपने समुदाय के लिए लड़ाई शुरू कर दी थी, लेकिन आज 50 साल बाद भी उन्हें लगता है कि वह कुछ भी हासिल नहीं कर सके हैं. राजस्थान में कालबेलिया जनजाति के लिए काम करने वाले कनिपव नाथ कालबेलिया समाज कल्याण समिति के अध्यक्ष किशन नाथ कहते हैं,

सरकार ने हमारे समुदाय को कोई जमीन नहीं दी, न ही उन्होंने हमें कोई आवास प्रदान किया. न ही हमें मुख्यमंत्री राहत कोष या प्रधानमंत्री आवास योजना का कोई लाभ मिला है. मैं एक घुमंतू जनजाति से संबंध रखता हूं, जो एक खानाबदोश समुदाय है. अगर हमें जमीन का कोई टुकड़ा आवंटित किया जाता है, तो शायद हम भी सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें, लेकिन हमें सरकार द्वारा कोई जमीन आवंटित नहीं की गई है.

कालबेलिया समुदाय के साथ समय बिताने के दौरान हमने देखा कि उनमें अधिकारों को लेकर जागरूकता की भारी कमी है. समुदाय को बाहर के लोगों के साथ काम करने में भी विश्वास की कमी है, अज्ञात का भय कालबेलिया को अपनी समस्‍याओं के लिए मिलकर प्रयास करने से भी रोकता है.

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NDTV – Dettol have been working towards a clean and healthy India since 2014 via the Banega Swachh India initiative, which is helmed by Campaign Ambassador Amitabh Bachchan. The campaign aims to highlight the inter-dependency of humans and the environment, and of humans on one another with the focus on One Health, One Planet, One Future – Leaving No One Behind. It stresses on the need to take care of, and consider, everyone’s health in India – especially vulnerable communities – the LGBTQ populationindigenous people, India’s different tribes, ethnic and linguistic minorities, people with disabilities, migrants, geographically remote populations, gender and sexual minorities. In wake of the current COVID-19 pandemic, the need for WASH (WaterSanitation and Hygiene) is reaffirmed as handwashing is one of the ways to prevent Coronavirus infection and other diseases. The campaign will continue to raise awareness on the same along with focussing on the importance of nutrition and healthcare for women and children, fight malnutrition, mental wellbeing, self care, science and health, adolescent health & gender awareness. Along with the health of people, the campaign has realised the need to also take care of the health of the eco-system. Our environment is fragile due to human activity, which is not only over-exploiting available resources, but also generating immense pollution as a result of using and extracting those resources. The imbalance has also led to immense biodiversity loss that has caused one of the biggest threats to human survival – climate change. It has now been described as a “code red for humanity.” The campaign will continue to cover issues like air pollutionwaste managementplastic banmanual scavenging and sanitation workers and menstrual hygiene. Banega Swasth India will also be taking forward the dream of Swasth Bharat, the campaign feels that only a Swachh or clean India where toilets are used and open defecation free (ODF) status achieved as part of the Swachh Bharat Abhiyan launched by Prime Minister Narendra Modi in 2014, can eradicate diseases like diahorrea and the country can become a Swasth or healthy India.

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