नई दिल्ली: मातृत्व और इसकी अंतर्निहित प्राथमिक भूमिका में बच्चों और परिवार के कल्याण में केवल प्यार, देखभाल और करुणा ही नहीं बल्कि बलिदान भी शामिल है. अधिकतर माताओं के पास सेल्फ-केयर करने के लिए समय या ऊर्जा नहीं होती है. हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार, माताओं ने अपनी हेल्थ और वेलबिंग को अपनी लिस्ट में अंत में रखा है क्योंकि वे पति या पत्नी, गृहिणी, कर्मचारी और बहू जैसी कई भूमिकाएं निभाती हैं. इनमें से प्रत्येक भूमिका के लिए अत्यधिक मानसिक उपस्थिति की आवश्यकता होती है, ऐसे में इसका असर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ना तय है.
मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, चिल्ड्रन फर्स्ट के निदेशक और संस्थापक डॉ. अमित सेन एनडीटीवी को बताते हैं कि हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता के रूप में नहीं लिया जाता है, खासकर महिलाओं के मामले में. वो कहते हैं,
महिलाओं को कई अलग-अलग चीजों को संभालना और कंट्रोल करना पड़ता है, वह यह अपने मानसिक स्वास्थ्य को जानबूझकर प्रभावित करने के लिए नहीं करतीं. समय के साथ समाज में विशेषकर शहरी क्षेत्रों में महिलाओं और माताओं की भूमिका बदल रही है. संयुक्त परिवार में रहने वाली गृहिणी होने से लेकर समुदाय और परिवार का भरपूर सहयोग मिलने तक, आज अधिकांश परिवार सिंगल हैं. इसलिए उन्हें अलग-अलग रोल निभाने पड़ते हैं, उनमें से कई काम कर रही हैं, उन्हें अपने बच्चों की देखभाल करनी है, उन्हें अपने घर की देखभाल करनी है, यह सब उनके कंधों पर है. यह संतुलनकारी कार्य काफी मुश्किल हो सकता है.
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डॉ. सेन आगे बताते हैं कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि जब चीजें गलत हो जाती हैं, तो जिम्मेदारी मां पर आ जाती है.
यदि आप ध्यान दें, जब बच्चे सफल होते हैं, वे पढ़ाई या खेल में अच्छा करते हैं, सभी लोग पूरे परिवार को बधाई देते हैं – पिता, माता, दादा-दादी आदि को. हालांकि, जब कुछ भी गलत होता है, तो मां को दोषी ठहराया जाता है.
डॉ. सेन यह भी कहते हैं कि समाज ने पालन-पोषण और बचपन के मानकों को इस तरह से ऊंचा किया है कि बोझ अंततः माताओं के कंधों पर आ जाता है. उनका कहना है कि यह पहलू भी उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है.
डॉ सेन ने कहा, ‘कुछ लोग कहते हैं कि माताओं के लिए, अपराधबोध उनका मिडिल नेम होता है. वे अक्सर अपराधबोध के साथ जीतीं हैं क्योंकि उन्हें लगता है कहीं न कहीं कुछ ठीक नहीं हो रहा है. मुझे लगता है कि पालन-पोषण उद्योग ने कई वॉर्कशॉप और बुक्स के साथ इन सभी मानकों को निर्धारित किया है कि क्या यह बाल विकास है या यह माता-पिता की गुणवत्ता है या किस तरह का पालन-पोषण है. यदि आप किसी किड्स शॉप पर जाते हैं, तो इस बात पर ध्यान दें कि आपको बच्चों की देखभाल के लिए अब किस तरह के टूल और गैजेट मिल रहे हैं. कई मायनों में, यह उपभोक्तावाद है. यह दबाव बनाता है क्योंकि प्रत्येक माता-पिता के पास परफेक्ट बच्चे होते हैं, जिनकी शानदार तस्वीरों को हम सोशल मीडिया पर शेयर कर सकते हैं. हम ऐसे बच्चे चाहते हैं जिनसे टीचर्स के पास बात करने के लिए हमेशा अच्छी चीजें हों या जो किसी खेल या कला या खेल या पढ़ाई में अच्छा कर रहे हों. बच्चों को परफॉर्म करने में मदद करने का यह दबाव मां पर आता है. यह वास्तव में भारी हो सकता है और इसके परिणामस्वरूप अत्यधिक तनाव हो सकता है जिससे गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं,
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डॉ. सेन ने निष्कर्ष निकाला कि कोई भी मां पूर्ण नहीं होती और मुझे लगता है कि हमें इसे इसी तरह से देखना चाहिए.
दिल्ली की मनोचिकित्सक और विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों और किशोरों के साथ काम करने वाली मनोचिकित्सक डॉ. टीना गुप्ता का कहना है कि बच्चे का स्वस्थ विकास उनके माता-पिता पर निर्भर करता है क्योंकि बच्चे बेहद प्रभावशाली होते हैं. उन्होंने कहा,
विशेष रूप से माताएं क्योंकि वे उनके पहले स्पोर्ट सिस्टम के रूप में काम करती हैं. इसलिए, माताओं को अपने मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए विभिन्न कॉपिंग टूल का रुख करना अनिवार्य है. ऐसे में सेल्फ केयर पहला टूल है जो उनकी मदद कर सकता है. अपने लिए समय निकालना, हॉबी, व्यायाम करना, मेडिटेशन और चिकित्सा ये सभी सेल्फ केयर की प्रैक्टिस करने के कुछ तरीके हैं. माताओं के लिए यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि उन्हें खुद पर बहुत अधिक कठोर नहीं होना चाहिए और स्वयं की देखभाल और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी चाहिए.
आखिर में, डॉ. गुप्ता का कहना है कि अभिभूत महसूस करना पूरी तरह से ठीक है क्योंकि मां मातृत्व और नारीत्व के कई पहलुओं को जोड़ती हैं, प्रत्येक महिला सामाजिक और पितृसत्तात्मक दबाव और पूर्वाग्रह से गुजरती है. हालांकि, जीवन में उत्कृष्टता पाने वाले बच्चों की परवरिश करने में सक्षम होने के लिए अपने साथ-साथ अपने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्राथमिकता देना महत्वपूर्ण है.