जनजातीय समाज का पोषण की खराब स्थिति से गहरा संबंध है। दक्षिण राजस्थान के प्रतापगढ़ और उदयपुर जैसे आदिवासी इलाकों में इसे आसानी से देखा जा सकता है. यहां कुपोषण ने आदिवासी परिवारों को जकड़ रखा है, जिससे उनके बच्चों की सेहत और विकास बुरी तरह प्रभावित है. स्वास्थ्य संबधी परेशानियों के चलते आदिवासी समाज आबादी के सबसे कमजोर वर्गों में बना हुआ है. यहां परंपरागत रूप से चले आ रहे लैंगिक पूर्वाग्रह के कारण खराब पोषण का सबसे बड़ा खामियाजा आदिवासी महिलाओं को भुगतना पड़ता है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार राजस्थान में केवल 55% महिलाओं को प्रसव पूर्व देखभाल मिल पाती है. आदिवासी बहुल जिलों में तो यह आंकड़ा और भी कम है. इसके कई कारण हैं और इनमें गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया न होना, साक्षरता की कमी, स्वास्थ्य देखभाल और पोषण के बारे में सीमित जानकारी और खराब आहार जैसी चीजें इसमें शामिल हैं.
जनजातीय समुदायों के पोषण की प्रमुख बाधाएं
हाल ही में प्रतापगढ़ और उदयपुर के दौरे के दौरान यहां के आदिवासियों में गर्भावस्था के दौरान केले और दूध के सेवन के बारे में एक चौंकाने वाली धारणा देखने को मिली. समुदाय के कई सदस्यों का मानना था कि इन चीजों को खिलाने से बच्चे के शरीर पर सफेद दाग हो सकते हैं. यह भ्रामक धारणा इस क्षेत्र के लोगों में सही स्वास्थ्य जानकारियों के अभाव को दर्शाती है.
यूनिसेफ की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, “महिलाओं में कुपोषण व्यक्तिगत, घरेलू, सामुदायिक और सामाजिक स्तर पर खराब देखभाल प्रथाओं के कारण है.” हर उम्र में कुपोषण से निपटने और इसके पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले चक्र को तोड़ने के लिए महिलाओं के पोषण पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है. प्रशिक्षित हेल्थ केयर प्रोफेशनल्स का उपलब्ध न होना इस समस्या को बढ़ा देता है, जिससे आदिवासी महिलाएं स्वास्थ्य जटिलताओं और पोषण संबंधी कमियों का शिकार हो जाती हैं. इन इलाकों की शुष्क जलवायु और खेती-बाड़ी की कमी के कारण यहां के आदिवासियों के लिए पौष्टिक और विविधतापूर्ण आहार ले पाना काफी मुश्किल होता है.
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इसके अलावा यहां आंगनबाड़ी केंद्र भी गांव से काफी दूर होते हैं, जिससे बच्चों को पोषण और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पातीं. प्रशासनिक दिक्कतों के कारण भी प्रवासी आदिवासी परिवारों के बच्चों को आंगनबाड़ियों से लाभ मिलने की संभावना भी कम ही होती है, जिससे सरकारी योजनाओं तक इन परिवारों की पहुंच और लाभ उठाने की क्षमता कम हो जाती है. प्रचलित सामाजिक मानदंड, विश्वास, सांस्कृतिक प्रथाएं, भौगोलिक अलगाव और जंगलों पर निर्भरता आदिवासी आबादी को पारंपरिक तरीकों की तलाश करने के लिए प्रेरित करती है.
लिंग और पोषण का मसला
कुपोषण एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार लगभग दो-तिहाई देशों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ता है. इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, आदिवासी महिलाओं में स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति सामान्य आबादी की तुलना में खराब है और इसका कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) जैसी महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाओं की उनकी सीमित पहुंच है.
आमतौर पर महिलाएं सबसे अंत में और सबसे कम खाना खाती हैं, जो उनमें कुपोषण के दुष्चक्र का कारण बनता है और इसे बनाए रखता है. इस तरह खराब पोषण की जड़ें घरेलू स्तर पर जारी ऐसी रूढ़िवादी परंपराओं में निहित हैं. ऐसे परिवारों में गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं (पीएलडब्ल्यू) का भी परिवार के दूसरे सदस्यों से ज्यादा भोजन करना उचित नहीं माना जाता, क्योंकि यह उनकी आदर्श पत्नी या बहू की धारणा के खिलाफ है. साथ ही यहां इन महिलाओं का संसाधनों पर भी किसी तरह का नियंत्रण नहीं होता. इस तरह के भेदभाव और सांस्कृतिक मूल्य भोजन के बारे में महिलाओं की निर्णय लेने की शक्ति को सीमित करते हैं, जिसका उनके साथ ही उनके बच्चों के पोषण पर असर भी पड़ता है.
जनजातीय समुदायों के पोषण की स्थिति में बदलाव के कदम
राजस्थान के सलूंबर में फुलवारी (फूलों के बगीचे के लिए हिंदी शब्द) परियोजना नौ गांवों में कुपोषित और कमजोर आदिवासी बच्चों को पूरक पोषण, प्रारंभिक बाल विकास के लिए शिक्षा और मासिक स्वास्थ्य जांच प्रदान करने के लिए काम कर रही है. इसके अलावा नाबार्ड द्वारा समर्थित राजस्थान का वाग्धारा कार्यक्रम आहार विविधता में सुधार के लिए जंगल के अप्रयुक्त फलों और सब्जियों का घरेलू भोजन में उपयोग को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहा है.
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राजस्थान में प्रत्येक गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिला (पीएलडब्ल्यू) को सेहत और पोषण से जुड़ी सलाह देने के लिए फ्रंट-लाइन कार्यकर्ताओं (एफएलडब्ल्यू) ने कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षित पोषण चैंपियन (पोषण चैंपियन) के साथ भी हाथ मिलाया है. इसमें कई स्तरों पर कई चैनलों के माध्यम से पीएलडब्ल्यू को संदेश दिए जा रहे हैं, जिसमें आंगनवाड़ी केंद्रों पर एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, सामुदायिक स्तर की बैठकों के दौरान आशा, एमसीएचएन (मातृ, शिशु) पर एएनएम (सहायक नर्स और मिडवाइफ) महिलाओं को जरूरी परामर्श दे रही हैं. इसके साथ ही स्वास्थ्य और पोषण दिवस के आयोजन और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, आशा व पोषण चैंपियन द्वारा घर-घर जा कर भी (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) परामर्श देने का काम किया जा रहा है. एफएलडब्ल्यू के जरिये गहन पारस्परिक संचार (आईपीसी) करके गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के बीच जागरूकता बढ़ाई गई है और परिवार के सदस्यों को भी उनके साथ सहयोग करने करने के लिए प्रेरित किया है.
आगे का रास्ता: एकीकृत नीति-निर्माण
जनजातीय समुदायों के स्वास्थ्य और पोषण में अनिश्चितताओं से निपटने के लिए आदिवासी समाज में विभेदक स्वास्थ्य और पोषण संबंधी धारणाओं को खत्म करने और विश्वसनीय डेटा और साक्ष्य-आधारित पोषण नीतियों को प्राथमिकता देने की जरूरत है. कुपोषण की छिपी हुई महामारी को खत्म करने के लिए अधिक विकेन्द्रीकृत (डिसेंट्रलाइज्ड) व स्थानीय स्तर पर कार्यक्रम चलाने के नजरिये को अपनाना होगा.
जैसा कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में परिकल्पना की गई है, पारंपरिक चिकित्सा को प्राइमरी हेल्थ केयर के साथ जोड़कर वंचित वर्ग के लोगों के लिए न्यायसंगत, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने की सख्त जरूरत है. हेल्थ केयर में मानव संसाधन की कमी को पूरा कर हर किसी तक पहुंच रखने वाली स्वदेशी व पारंपरिक चिकित्सा के साथ आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं को जोड़ कर जनजातीय समुदायों के लिए एक विशेष स्वास्थ्य नीति तैयार करनी होगी.
जनजातीय विकास रिपोर्ट 2022 में कहा गया है, “ऐसे कई जनजातीय समुदाय हैं जो अलग-
लग और चुपचाप अपना जीवन जीना पसंद करते हैं. वे संकोची व शर्मीले लोग हैं और खुद को बाहरी दुनिया से नहीं जोड़ पाते हैं. देश के नीति निर्माताओं और नेताओं को उनकी इस विशिष्टता को समझ कर इन आदिवासियों के कल्याण की दिशा में काम करना होगा, ताकि वे उनको विकास की मुख्यधारा के साथ बेहतर तरीके से जोड़ा जा सके. सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में आदिवासियों की संस्कृति के अनुकूल विशेष प्रकार के जनजातीय हेल्थ केयर प्रोग्राम चला कर इन समुदायों के बीच हेल्थ केयर व स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी असमानताओं को कम किया जा सकता है. उनकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करके और पारंपरिक ज्ञान को शामिल करते हुए इस समुदाय की सक्रिय भागीदारी के जरिये हम एक ऐसा समावेशी (इनक्लूसिव) और असरदार हेल्थ केयर सिस्टम तैयार कर सकते हैं, जिससे आदिवासी समाज के लिए बेहतर स्वास्थ्य परिणाम मिल सकें.
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(यह लेख आईपीई ग्लोबल में सामाजिक और आर्थिक अधिकारिता टीम की विश्लेषक इशिका चौधरी और आईपीई ग्लोबल लिमिटेड के वरिष्ठ निदेशक, सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण टीम राघवेश रंजन द्वारा लिखा गया है.)
अस्वीकरण: ये लेखकों के निजी विचार हैं.