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ओपिनियन : बाल कुपोषण को खत्म करने के लिए गर्भवती महिलाओं के पोषण पर ध्यान देना ध्यान जरूरी

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) बच्चों की पोषण स्थिति का आकलन करने के लिए वेस्टिंग (बच्चों की लंबाई के अनुसार वजन) और स्टंटिंग (बच्चों की उम्र के अनुसार ऊंचाई) को महत्वपूर्ण फैक्टर मानता है

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ओपिनियन : बाल कुपोषण को खत्म करने के लिए गर्भवती महिलाओं के पोषण पर ध्यान देना ध्यान जरूरी
सतत विकास लक्ष्य 2 (SDG-2) का लक्ष्य 2030 तक दुनिया भर में कुपोषण से निपटना है

नई दिल्ली: सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल – 2 (SDG-2) का लक्ष्य 2030 तक दुनिया भर में बच्‍चों के कुपोषण की समस्या से निपटना है. इसके लिए किशोरों और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है. हालांकि, इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कई बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि कुपोषित बच्चों की आधी आबादी निम्न-मध्यम आय वाले देशों में है. बच्चों के पोषण में सार्थक प्रगति के लिए कुपोषण में योगदान देने वाले अलग-अलग फैक्टर्स को समझना बेहद जरूरी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) बच्चों की पोषण स्थिति का आकलन करने के लिए वेस्टिंग (बच्चों की लंबाई के अनुसार उनका वजन) और स्टंटिंग (बच्चों की उम्र के अनुसार उनकी ऊंचाई) को मुख्य संकेतक मानता है.

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कुपोषण से निपटने के लिए वर्तमान नीतिगत ढांचा

SDG-2 के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए सितंबर महीने को देश भर में “पोषण माह” के रूप में मनाया जाता है. यह एक वार्षिक आयोजन है, जिसका मकसद पूरे देश में पोषण के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाना और पोषण संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा देना है. भारत की पोषण नीति में निवारक और उपचारात्मक दोनों पहलू शामिल हैं. ये नीतियां नेक इरादे वाली हैं और इनमें महत्वपूर्ण प्रगति हुई है, फिर भी कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए निवारक प्रयासों को मजबूत करने की आवश्यकता है. आंकड़े बताते हैं कि एनएफएचएस-4 और 5 के बीच 6-59 महीने की उम्र के एनीमिया से पीड़ित बच्चों में 8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसमें सुधार के लिए कुपोषण, विशेष रूप से बाल दुर्बलता के प्रमुख कारकों पर ध्यान देने की आवश्यकता है.

भारत में बाल विकास की निगरानी और वेस्टिंग प्रबंधन मुख्य रूप से आंगनबाड़ी केंद्रों (एडब्ल्यूसी) में किया जाता है. आंगनबाड़ी केंद्र पोषण प्रबंधन प्रणाली की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रही कुपोषण से निपटने में अहम भूमिका निभाते हैं. इसमें गर्भधारण का जल्‍द से जल्‍द रजिस्ट्रेशन, प्रसवपूर्व देखभाल (एएनसी), स्तनपान परामर्श, पूरक आहार का ज्ञान देना और बाल विकास की निगरानी शामिल है. इन संस्थागत प्रयासों के बावजूद कुछ क्षेत्रों में बाल दुर्बलता को कम करने की प्रगति धीमी बनी हुई है. उदाहरण के लिए, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात और बिहार जैसे राज्यों में 25 प्रतिशत से अधिक बच्चे कमजोर हैं (NFHS-5).

मध्यवर्ती कारणों का समाधान करना जरूरी है, जो जोखिम को बढ़ाते हैं, जैसे कि गर्भावस्था के दौरान खराब मातृ स्वास्थ्य, अपर्याप्त आहार विविधता, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी, जन्म के समय बच्चे का कम वजन, पूरक आहार की शुरुआत में देरी और बचपन के प्रारंभिक दिनों में पौष्टिक आहार की कमी की समस्‍या खत्‍म करके बच्चों में कुपोषण को काफी कम किया जा सकता है. हालांकि मां के खराब मातृ स्वास्थ्य का कारण घर और समाज में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति हो सकती है. इसलिए, कुपोषण के सभी कारणों को खत्म कर पाना काफी जटिल काम है और इसके लिए संदर्भ के अनुरूप दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है.

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कुपोषण के पीढ़ी-दर-पीढ़ी चक्र को खत्म करना

बच्चों के समुचित विकास के लिए उन्हें बचपन से ही पौष्टिक आहार दिया जाना जरूरी है. गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं की पोषण स्थिति को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. गर्भावस्था के दौरान खराब पोषण से गर्भावस्था के दौरान कम वजन बढ़ने, भ्रूण का गलत ढंग से विकसित होना, जन्म के समय बच्चे का वजन कम होना और बचपन में कमजोर होने का खतरा बढ़ जाता है. गर्भावस्था के दौरान मां और उसके गर्भ में पल रहे बच्‍चे के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों यानी माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की पर्याप्त मात्रा के लिए अलग-अलग प्रकार की चीजों को एक सही अनुपात में खाना जरूरी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन न्यूनतम आहार विविधता सुनिश्चित करने के लिए 24 घंटे में विटामिन और प्रोटीन युक्त कम से कम चार खाद्य समूहों से भोजन लेने की सलाह देता है. शोध अध्ययन बताते हैं कि भारत में बड़ी संख्या में गर्भवती महिलाओं को सही पोषण नहीं मिल पाता. एनएफएचएस-5 के अनुसार 40 फीसदी महिलाओं को कोई फल खाने को नहीं मिलता, जबकि 24 फीसदी महिलाओं को आहार में दूध या दही उपलब्‍ध नहीं होता. इसके अलावा 19 प्रतिशत महिलाएं दुबली (बीएमआई 18 से कम) हैं और 8 प्रतिशत अत्यधिक दुबली की श्रेणी (बीएमआई 17 से कम) में आती हैं. आहार में विविधता के बिना महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त वजन बढ़ाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, जिससे जन्म के समय बच्चे का वजन काफी कम होने या समय से पहले प्रसव (प्री मेच्‍योर डिलीवरी) का खतरा बढ़ जाता है. कई सामाजिक और भौगोलिक क्षेत्रों में माताओं के पोषण की स्थिति खराब बनी हुई है. इससे गर्भावस्था में कई तरह की समस्याएं, नवजात में बाल रुग्णता और बचपन के शुरुआती दिनों में बच्चे की सेहत खराब रहने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. 

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भारत में चाइल्ड वेस्टिंग: आगे का रास्ता

भारत में कुपोषण के पीढ़ीगत चक्र को तोड़ने का एक प्रमुख समाधान महिलाओं के बीच आहार विविधता को बढ़ावा देना है, खासकर गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान. दैनिक आहार में अलग-अलग प्रकार के फलों, सब्जियों और दूध उत्पाद लेने को प्रोत्साहित करने से इन्‍हें आवश्यक विटामिन, प्रोटीन और कैल्शियम मिल सकता है. कम आहार विविधता की समस्या से निपटने के लिए, लोगों को भोजन में विविधता और पोषण में उसके महत्व के बारे में जागरूक करना जरूरी है. हालांकि, केवल आहार विविधता को बढ़ावा देने से तब तक वांछित परिणाम नहीं मिल सकते, जब तक कि कुपोषण के आर्थिक कारणों से निपटा नहीं जाता. धान मंत्री मातृ वंदना योजना (पीएमएमवीवाई) जैसी नकद हस्तांतरण (कैश ट्रांसफर) योजनाएं महिलाओं के बैंक खातों में सीधे धन हस्तांतरित करके और उन्हें गर्भावस्था के प्रारंभिक चरण में स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़कर पोषण सुरक्षा से जुड़ी आर्थिक समस्या के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं.

आर्थिक सहायता के साथ-साथ लोगों को विविधतापूर्ण और पौष्टिक भोजन लेने के महत्व के बारे में ज्ञान और जानकारी देना भी जरूरी है.  यह काम शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रमों के जरिये किया जा सकता है, जो स्थानीय खान-पान के पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक समझ के साथ जोड़ते हैं. इस बारे में जानकारी होने पर लोग अपने भोजन के बारे में सोच-समझ कर निर्णय ले सकते हैं और अपनी आहार संबंधी आदतों में भी सुधार कर सकते हैं.

कई ऐसे पारंपरिक खाद्य पदार्थ, जो कभी आवश्यक पोषक तत्वों के समृद्ध स्रोत थे, पिछले कुछ वर्षों में हाशिए पर चले गए हैं. इनके महत्व को बताने से पोषण सुनिश्चित करने का एक किफायती और और टिकाऊ समाधान तैयार किया जा सकता है. उदाहरण के लिए राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे क्षेत्रों में लोगों को स्थानीय रूप से आसानी से उपलब्ध बाजरे को आहार में शामिल करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, जो प्रोटीन और अन्य पोषक तत्वों का एक अच्छा स्रोत है.  लोगों के बीच पोषण संबंधी जागरूकता फैलाने में अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. ये स्‍वास्‍थ्‍य संदेशों का प्रशिक्षण लेकर स्वस्थ गर्भावस्था के लिए भोजन में विभिन्न पोषक चीजों को शामिल करने के महत्व को प्रभावी ढंग से समझा सकते हैं.

गर्भावस्था के दौरान स्वास्थ्य देखभाल और पौष्टिक आहार के महत्व के बारे में केवल ज्ञान देने से ही काम नहीं बनेगा, जब तक कि परिवार के लोग सक्रिय रूप से इन बातों को अमल में लाने में शामिल नहीं होते और गर्भधारण के शुरुआती दिनों से ही गर्भवती महिला और नवजात शिशु के स्वास्थ्य की देखभाल करने की जिम्मेदारी नहीं लेते हैं. इसके अलावा घरों में लिंग भेद वाली सोच को खत्म किए बिना केवल पोषण सुरक्षा के उपाय करना भी अपर्याप्त है, क्योंकि इससे वह स्थिति खत्म नहीं होती, जहां “महिलाओं के खाने की बारी सबसे बाद में आती है और उन्हें खाने को सबसे कम मिलता है.”

व्‍यावहारिक स्तर पर गर्भवती महिलाओं की पोषण संबंधी जरूरतों को प्राथमिकता देने वाली प्रभावी रणनीतियों और कदमों के लिए सरकारी एजेंसियों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं, सामुदायिक संगठन और परिवारों के बीच सहयोग बहुत जरूरी है. इन चीजों को सुनिश्चित करके और घर के भीतर व बाहर सही वातावरण बना कर माताओं के पोषण में जरूरी सुधार लाया जा सकता है और  गर्भावस्था से जुड़े जोखिम को कम किया जा सकता है. इस सबसे ही बच्चों में कुपोषण और कमजोरी की समस्या से निपटा जा सकता है.

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(यह लेख आईपीई ग्लोबल लिमिटेड में पोषण परियोजना पर कार्यरत विश्लेषक अंशिता शर्मा और आईपीई ग्लोबल लिमिटेड के वरिष्ठ निदेशक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारिता, राघवेश रंजन द्वारा लिखा गया है.)

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