ट्राइबल हेल्थ मिनिस्ट्री के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 104 मिलियन से अधिक आदिवासी रहते हैं, जो 705 जनजातियों में फैले हुए हैं, जो भारत की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत है, लेकिन आजादी के सात दशकों के बाद भी आदिवासी हाशिए पर हैं और गैर-आदिवासी आबादी की तुलना में बुनियादी सुविधाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं तक उनकी पहुंच नहीं है.
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और मिनिस्ट्री और ट्राइबल अफेयर्स की रिपोर्ट ‘भारत में ट्राइबल हेल्थ – गैप को पाटना और आगे के रोडमैप’ में बताया गया है कि, केवल 10.7 प्रतिशत जनजातीय आबादी के पास नल के पानी तक पहुंच है, जबकि 28.5 प्रतिशत गैर -अनुसूचित जनजाति जनसंख्या हर 4 में से 3 आदिवासी (74.7 फीसदी) खुले में शौच करने रो मजबूर हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में आदिवासी क्षेत्रों में बीमारियों और कुपोषण का तिगुना बोझ है, मलेरिया, तपेदिक, डायरिया जैसे संचारी रोग बड़े पैमाने पर हैं.
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जैसा कि पूरी दुनिया ने 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस के रूप में ‘हमारा स्वास्थ्य, हमारा ग्रह’ थीम के साथ मनाया, जिसमें स्वच्छ हवा, पानी और भोजन के साथ दुनिया की फिर से कल्पना करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है और सभी के लिए स्वास्थ्य और कल्याण पर केंद्रित समाज बनाने के लिए एक आंदोलन को बढ़ावा दिया जाता है. बनेगा स्वस्थ इंडिया टीम ने यह समझने के लिए विशेषज्ञों के साथ बात की कि भारत कैसे आदिवासी और हाशिए के समुदायों सहित ‘सभी के लिए स्वास्थ्य’ के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है.
कोलिशन फॉर फूड एंड न्यूट्रिशन सिक्यॉरिटी के चीफ एडवाइजर मेंटोर बसंत कार ने कहा,
जनजातीय खाद्य प्रणालियों और स्वास्थ्य परिणामों में सुधार भारत के विकास, उत्पादकता और जनसांख्यिकीय लाभांश को सुपरचार्ज कर सकता है.
जनजातीय आबादी के बीच स्वास्थ्य और पोषण संबंधी कमियों तक पहुंच में असमानता को ठीक करने में भारत किस तरह मदद कर सकता है, इस पर बात करते हुए, श्री कर ने नीचे दिए गए कुछ स्टेप्स की सिफारिश की:
एक दृष्टिकोण के रूप में तीव्र कुपोषण (सीएमएएम) के कम्यूनिटी मैनेजमेंट के अवसर का उपयोग किया जा सकता है. इसके जरिए सामुदायिक और घरेलू स्तर पर बच्चों को सुरक्षित और ऊर्जा से भरपूर पौष्टिक आहार, अच्छी स्वच्छता और ब्रेस्टफीडिंग प्रैक्टिस के साथ इलाज और देखभाल के साथ खिलाया जा सकता है. भारत की पोषण अभियान योजना को प्रत्येक आदिवासी जिले को कम से कम छह फूड ग्रुप्स में आत्मनिर्भर बनाने के एजेंडे के साथ काम करना चाहिए. जनजातीय आबादी विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों को सभी फूड ग्रुप्स से फूड्स लेने और फल, सब्जियां, फलियां, मांस, मछली और अंडे का उपभोग करने की स्थिति में होना चाहिए.
सेव द चिल्ड्रन हेल्थ एंड न्यूट्रिशन की डिप्टी डायरेक्टर अंतर्यामी दास ने कहा,
मुझे लगता है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (2017) के तहत सार्वभौमिक स्वास्थ्य आश्वासन का वादा आदिवासी क्षेत्रों से शुरू होना चाहिए. जनजातीय स्वास्थ्य सूचकांक (THI) विशेषज्ञों द्वारा एक मांग और सिफारिश है, और इसे हमारे देश में जनजातीय स्वास्थ्य की स्थिति को कैप्चर करने के लिए बनाया जाना चाहिए. राष्ट्रीय सर्वेक्षण चाहे वह राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण हो, सेम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम स्टेटिस्टिकल रिपोर्ट हो, वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण आदि हो, आदिवासी क्षेत्रों के कई स्वास्थ्य मानकों का भी मूल्यांकन करने का लक्ष्य होना चाहिए. देश में जनजातीय स्वास्थ्य के लिए एक उत्तरदायी और फोकस्ड गवर्नेंस स्ट्रक्चर को अपनाने के लिए केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर जनजातीय स्वास्थ्य निदेशालय और जनजातीय स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के साथ-साथ राष्ट्रीय जनजातीय स्वास्थ्य परिषद जैसे संस्थागत और अनुसंधान निकायों को शीर्ष संस्थान के रूप में तैयार करने की जरूरत है.
धन और आवंटन के बारे में बात करते हुए, डॉ दास ने विशेष रूप से स्वास्थ्य पर जनजातीय मामलों के मंत्रालय के तहत जिला आवंटन का लगभग 15 प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश की. जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाने की जरूरत पर बल देते हुए, डॉ दास ने कहा,
यह जरूरी है कि जनजातीय क्षेत्रों के भीतर या बाहर रहने वाले सभी आदिवासियों को केंद्र या राज्य सरकार की योजनाओं के माध्यम से स्वास्थ्य बीमा के तहत कवर किया जाना चाहिए. अंत में, आदिवासी क्षेत्रों में काम करने के लिए समर्पित डॉक्टरों को उपलब्ध कराने के लिए आदिवासी जिलों में विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों के लिए समर्पित मेडिकल कॉलेजों का निर्माण जरूरी है.
ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया – ब्रिजिंग द गैप एंड रोडमैप अहेड रिपोर्ट के अनुसार, जनजातीय आबादी में जन्म के समय कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत सबसे अधिक पाया गया. गैर-आदिवासियों की तुलना में जनजातीय लोगों में अनुशंसित कैलोरी के कम सेवन की समस्या पर प्रकाश डालते हुए, डॉ. दास ने कहा,
यह देखा गया है कि आदिवासी लोगों में कुपोषण गैर-आदिवासी आबादी से अधिक है जो सीधे तौर पर प्रोटीन, कैलोरी और सूक्ष्म पोषक तत्वों सहित पोषक तत्वों की अपर्याप्त खपत का परिणाम है.
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डॉ दास ने सेव द चिल्ड्रेन के एक अध्ययन का भी हवाला दिया जिसमें भारत की आदिवासी आबादी में कुपोषण के बोझ पर प्रकाश डाला गया और कहा,
झारखंड के आदिवासी जिले से सेव द चिल्ड्रन, “कोस्ट ऑफ फूड” अध्ययन से पता चलता है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा पौष्टिक आहार नहीं ले सकता है, जो सेंम्पल आदिवासी परिवारों के लिए केवल कैलोरी डाइट से ढाई गुना अधिक महंगा है. पोषण के प्रति संवेदनशील सामाजिक सुरक्षा योजनाएं सामर्थ्य के अंतर को कम करने में बड़ी भूमिका निभाती हैं.
भारत में आदिवासी स्वास्थ्य के संकट से निपटने के लिए कुछ विशेष क्षेत्रों को स्पेशिफाइड करते हुए, डॉ. विकास कौशल, हेड, हेल्थ फ्रॉम सेव द चिल्ड्रन ने कहा,
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत आदिवासी बहुल जिलों में जनजातीय मलेरिया एक्शन प्लान शुरू किया जाना चाहिए. शिशु और बाल मृत्यु दर को कम करने के लिए रेफर्ड होम बेस्ड न्यूबोर्न और बेबी केयर सर्विसेज को मजबूत करने के लिए एक समिति की सिफारिश की जानी चाहिए. कुपोषण को कम करने के लिए फूड सिक्योरिटी सुनिश्चित की जाए और आदिवासी जिलों में इंटिग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विस को सुदृढ़ किया जाए. आदिवासी समुदायों की मातृ और बाल स्वास्थ्य समस्याओं को अलग-अलग हल नहीं किया जा सकता है. स्वास्थ्य के सामाजिक-आर्थिक निर्धारकों के लिए कार्यक्रमों को ध्यान में रखना जरूरी है. स्वास्थ्य, भोजन, पानी और स्वच्छता के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण, परिवार नियोजन, गरीबी उन्मूलन से संबंधित समस्याओं को संबोधित करते हुए, और शिशु और बाल आहार प्रथाओं में आदिवासी कल्याण के पूरे स्पेक्ट्रम को शामिल किया गया है. आदिवासी महिलाओं को परिवार नियोजन, मासिक धर्म स्वच्छता, गर्भनिरोधक, संस्थागत प्रसव, गर्भपात के सुरक्षित और कानूनी साधनों पर शिक्षित करने के लिए गैर सरकारी संगठनों और नागरिक समाजों की मदद से वर्कशॉप आयोजित की जानी चाहिए.
चाइल्डफंड इंडिया की कंट्री डायरेक्टर और सीईओ नीलम मखीजानी ने कहा कि भारत आदिवासी स्वास्थ्य की अनदेखी क्यों नहीं कर सकता,
भारत में जनजातीय स्वास्थ्य की समस्याओं को लंबे समय से नजरअंदाज किया गया है और आंकड़े इसका सबूत हैं. एक आदिवासी परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे के लिए अंडर -5 मृत्यु दर प्रति 1,000 जन्म पर 57 है, जबकि देश के बाकी हिस्सों में यह 37 है. गैर-आदिवासी आबादी की तुलना में आदिवासी परिवार में पैदा होने वाले बच्चे की मृत्यु की संभावना अधिक होती है. नवजात अवधि के दौरान मरने की संभावना 20 प्रतिशत तक होती है, जबकि प्रसवोत्तर अवधि के दौरान यह 45 प्रतिशत होती है.
एम.एस. मखीजानी ने कहा कि आदिवासी क्षेत्र का स्वास्थ्य बहुत पीछे क्यों है, इस समस्या पर प्रकाश डालते हुए, एमएस मखीजानी ने कहा,
इस समस्या का मूल कारण गरीबी है, इसके बाद शिक्षा और जागरूकता, कृषि भूमि और संपत्ति का अधिकार जैसे परस्पर जुड़ी समस्याएं हैं. देश के आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण के रूप में इस समस्या को बुनियादी रूप से ठीक करने के लिए हमें सबसे पहले पहुंच, जागरूकता की समस्या को ठीक करने की जरूरत है. हम आदिवासी लोगों से कहते हैं कि उनकी थाली में पांच रंग हों और सूक्ष्म पोषक तत्वों से लाभ प्राप्त करें, लेकिन अगर उनकी अच्छे भोजन तक पहुंच नहीं है तो वे कैसे प्राप्त करेंगे और हम इससे कैसे निपटते हैं यह वास्तव में एक महत्वपूर्ण प्रश्न है.
सुश्री मखीजानी ने आगे कहा कि भारत में स्वास्थ्य पर आवंटन सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2.5 से 3 प्रतिशत है, जिसे जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए 10 प्रतिशत तक बढ़ाया जाना चाहिए.
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