भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में असमानता की जो संरचना है, उसके चलते देश में LGBTQIA+ समुदाय को हाशिये पर धकेला जाता है. सामाजिक, राजनीतिक और औद्योगिक स्तर पर स्वीकार्यता के अभाव के कारण इस समुदाय को आये-दिन जीवन के हर क्षेत्र में हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है, फिर वह चाहे स्कूल हो, घर, कामकाज की जगह या सार्वजनिक स्थान. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा 2018 में ट्रांसजेंडर समुदाय के मानव अधिकारों पर करवाए गए पहले अध्ययन में यह बात सामने आई कि 96 फीसदी ट्रांसजेंडरों को नौकरी नहीं दी जाती और उन्हें कम आय या फिर अशोभनीय कामों के लिए मजबूर किया जाता है. इस अध्ययन में आगे कहा गया है कि 52 प्रतिशत ट्रांसजेंडरों को स्कूल में सहपाठियों के साथ-साथ 15 प्रतिशत टीचरों की तरफ से भी परेशानी झेलनी पड़ती है. इससे होता यह है कि वह अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ने पर ही मजबूर हो जाते हैं.
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स्वास्थ्य पर असर और उपलब्धता
आजीविका के सीमित साधनों और फिर भेदभाव के चलते ट्रांसजेंडरों को ने केवल उनकी पहचान बल्कि रोजी-रोटी के नजरिये से भी हाशिये पर धकेला गया है. एनएचआरसी की स्टडी बताती है कि 23 प्रतिशत ट्रांसजेंडर देह व्यापार में लिप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वास्थ्य संबंधी खतरे और अधिक बढ़ जाते हैं. आम लोगों की तुलना में उन्हें एचआईवी ग्रसित होने की आशंका 49 फीसदी ज्यादा होती है. सरकारी अस्पतालों में अवैध रूप से होने वाली लिंग निर्धारण सर्जरी का बढ़ना भी एक बड़ा मुद्दा बन गया है. ये लिंग परिवर्तन सर्जरी बगैर पूरी जानकारी और कौशल से की जाती हैं. नतीजा यह होता है कि जो लोग लिंग परिवर्तन सर्जरी करवा रहे होते हैं, उन्हें दोयम दर्जे की देखभाल ही मिल पाती है. मेडिकल प्रक्रियाओं को वैध ठहराने वाले संबंधित दस्तावेज और आवश्यक रसीदें मिलने की सुविधा भी उनके लिए नहीं है. प्रोफेशनल और जवाबदेही के अभाव में LGBTQIA+ समुदाय को क्वालिटी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने की चुनौतियां और जटिल हो जाती हैं.
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पलायन ही एकमात्र तरीका
ऐसे में, जबकि भारत के शहरी इलाकों में प्राइड मूवमेंट ने जोर पकड़ा है, ऐसा क्या है जो नहीं बदला? कई मुद्दों के साथ समलैंगिक समुदाय के लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ पलायन करने को मजबूर हैं. सामाजिक अस्वीकार्यता, जबरन निकाल दिए जाने के चलते बेघरी, घर में भयावह हिंसा और रोजी रोटी कमाने के अवसरों के न होने के चलते यह पलायन होता है. शहरी क्षेत्रों में आते ही इनके लिए हकीकत बदल जाती है और अपनी आजीविका के लिए इनके पास भीख मांगने या देह व्यापार करने जैसे विकल्प होते हैं. इधर, एक नियामक सामाजिक-आर्थिक संरचना की कई परतों के उलझाव को लेकर एजेंसियों के सामने कई चुनौतियां बनी ही हुई हैं. समलैंगिक समुदाय के सामने अपनी पहचान के लिए जो रास्ते हैं, उनमें सीमित जागरूकता या सूचनाएं और खुद को अभिव्यक्त कर पाने की सीमित स्वतंत्रता बाधा बनती है. इससे अक्सर इनकी सच्ची पहचान खोजने के रास्ते बाधित होते हैं, और तो और इनके मानसिक स्वास्थ्य, खुशहाली और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा पर विपरीत असर पड़ता है.
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सहभागिता में बाधाएं
एक ट्रांसवूमन चांदनी एक सामुदायिक एनजीओ ‘पायना’ का नेतृत्व करती हैं. शहरी क्षेत्रों में प्राइड मूवमेंट चूंकि अंग्रेजी बोलने वालों की अगुवाई में है इसलिए वहां भाषा सहभागिता में बाधा बनती है. इस मूवमेंट में स्वाभाविक तौर पर समलैंगिकों के कम पहचाने गए वर्गों जैसे ‘जोगप्पा’ और ‘डबल डेकर’ को कम ही प्रतिनिधित्व मिल पाता है. फिर आर्थिक पक्ष भी आंदोलन में सहभागिता के लिए एक एक बाधा है, खास तौर से उनके लिए जो हर दिन अपनी बुनियादी जरूरतें को पूरा करने के लिए संघर्ष करते हैं. जहां ये लोग भाषा नहीं समझ पाते और आयोजनों की एंट्री फीस या ड्रेस आदि के लिए खर्च नहीं कर पाते, सामाजिक-आर्थिक रूप से ऐसे वंचितों के लिए आंदोलन से जुड़ने में कई मुश्किलें हैं.
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जातिगत पहचान और भेदभाव
क्वीर समुदाय के भीतर लिंग, जाति, धर्म, भौगोलिकता और वर्ग आदि पैमानों के आधार पर शोषण का वर्गीकरण होता है. औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों में, LGBTQIA+ समुदायों के लोग इन अंतर्वर्गीय पहचानों के उलझाव को लेकर भी हाशिये पर हैं. उदाहरण के लिए एक ऐसे क्वीर की स्वतंत्रता को, जिसे जन्म के समय महिला की पहचान दी गई हो को मौजूदा लैंगिक मानदंडों से चुनौती देना आसान है, वहीं जैविक रूप से महिला माने जाने पर स्वायत्तता की अनदेखी करना पुरुषों की तुलना में आसान होता है.
ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले दलित जैसे क्वीर ग्रुप्स के लिए भेदभाव और भी अधिक गंभीर है.
जन्म के समय से ही महिला पहचान मिलने वाले दलित क्वीर के लिए सुरक्षित आवास उपलब्ध होने का अभाव उसके साथ होने वाले यौन शोषण और हिंसा के खतरे को और बढ़ाता है. और फिर शेल्टर, नौकरी के अवसरों, कानूनी और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता की चुनौतियां तो हैं ही.
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जमीनी स्तर के समुदायों को समर्थन
पायना जैसी जमीनी संस्थाएं जोगप्पा, डबल डेकर और कोठी*** वर्गों के सदस्यों द्वारा ही चलाई जा रही है. हालांकि ये संस्थाएं हाशिये के समुदायों में नेतृत्व विकसित करने पर फोकस करती हैं लेकिन जब बात फंड की उपलब्धता पर आती है तो उन्हें भाषा के अवरोध से होने वाले नुकसान का सामना करना पड़ता है, जो उनके लिए एक संवेदनशील मुद्दा है. इससे इन जमीनी नेताओं की मुश्किलें बढ़ती हैं, जो पहले ही फंड देने वाले समुदायों के बीच अविश्वसनीय और अलग होने का दर्द झेल रहे हैं.
LGBTQIA+ समुदाय के भीतर, लोगों को जोड़कर कोई एजेंसी बनाने या नेतृत्व क्षमता खड़ी करने जैसे मुद्दे वाकई तुरंत मदद और ध्यान चाहते हैं. खास तौर से वो, जो सांस्कृतिक अतिक्रमण के चलते समलैंगिकों की विविध पहचानों वाले समुदाय हैं. ऐसी जमीनी संस्थाओं के विकास और ग्रोथ के लिए जमीनी एनजीओ को फ्लेक्सिबल फंडिंग का विकल्प महत्वपूर्ण हो सकता है ताकि सिर्फ प्रक्रियाबद्ध सहारे से ज्यादा बेहतर कुछ हो सके. यही नहीं, विविध समुदायों को ओवरऑल प्रतिनिधित्व भी मिले. सहभागिता और सहारे के बिना, हाशिये के LGBTQIA+ समुदाय सामाजिक आर्थिक स्तर की अंतर्वर्गीय चुनौतियां झेलते रहेंगे और सस्टैनैबिलिटी की दौड़ में पीछे छूट जाएंगे. अगर हाशिये से और समुदाय के भीतर स्वास्थ्य संकट के मकड़जाल से उन्हें निकलना है तो यह समझना जरूरी है है कि उनके अपने अनोखे खतरे और डर क्या हैं?
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* जोगप्पा, हाशिये का वह समुदाय है, जो महाराष्ट्र और कर्नाटक में रेणुका देवी या येलम्मा के भक्त या दास के तौर पर सेवा करते हैं, खासकर पुरुष दास के तौर पर.
** डबल-डेकर असल में कोठी/हिजड़ा समुदाय के लोग हैं, जो महिलाओं के साथ दोनों तरह से (Receptive and penetrative) संबंध बना सकते हैं. इनके लिए यह शब्द हाल ही इस्तेमाल होने लगा है, जो बताता है कि यौन व्यवहार में इनकी विविधता इन्हें एक सहसमूह में रखती है. हालांकि कुछ डबल-डेकर प्राथमिक तौर कोठी के रूप में पहचाने जाते हैं, लेकिन ‘डबल-डेकर’ संज्ञा एक अतिरिक्त लेबल के तौर पर देखी जाती है, जिससे पता चलता है कि इनमें स्त्रीत्व तो है लेकिन हमेशा यही संभव हो, ऐसा नहीं है.
*** कोठी का मतलब उनसे है, जो जैविक तौर पर पुरुष हों पर अलग स्तरों पर उनमें स्त्री के लक्षण भी हों. अक्सर परिस्थितिवश. इनका बर्ताव बाइसेक्सुअल हो सकता है, ये महिला से शादी कर सकते हैं या फिर आजीविका के लिए सेक्सवर्कर हो सकते हैं. इसी तरह हिजड़े कहे जाने वाले समुदाय के कुछ लोग भी कोठी के तौर पर पहचाने जाते हैं. हालांकि सभी कोठी खुद को ट्रांसजेंडर या हिजड़ा नहीं मानते.
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(यह लेख पयाना की सचिव और संस्थापक सदस्य चांदनी और रीबिल्ड इंडिया फंड की टीम लीडर उस्ताती गुजराल द्वारा लिखा गया है.)
डिस्क्लेमर : ये लेखकों की निजी राय हैं.